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[ मूलाचारे
पुनरपि ध्यानस्य' स्थर्यमाह
जह ण चलइ गिरिराजो अवरुत्तरपुव्वदक्खिणेवाए।
एवमचलिदो जोगी अभिक्खणं झायदे झाणं ॥८८६॥ यथा न चलति न स्यानाच्च्युतो भवति गिरिराजो मेरुः पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तरवातः, एवमचलितो योगी सर्वोपसर्गादिभिरकंप्यभावोऽभीक्ष्णं निरन्तरं समयं समयं प्रत्यसंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरां कुर्वन ध्यायेत ध्यानं समाधिमिति, यद्यप्यत्रकवचनं जात्यपेक्षया तथापि बहुवचनं द्रष्टव्यं ध्या न्ति ध्यानमिति ॥८८६॥ तत एवं ध्यानं प्रध्याय
णिविदकरणचरणा कम्मं णिधुद्धवं धुणिताय ।
जरमरणविप्पमुक्का उवेंति सिद्धि धुदकिलेसा ॥८८७॥ ततो ध्यानं संचित्य निष्ठापितकरण चरणा: परमोत्कर्ष प्रापिता: पंचमहाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिपंचनमस्कारषडावश्यकासिकानिषद्यका यस्ते मुनयः कर्म निधत्तोद्धत बद्धपुष्टं' बद्धनिकाचितं सुष्ठ स्निग्धं सुष्ठु दुःखदायकं निर्धूतं निर्मूलतः सम्यक् धूत्वा प्रक्षिप्य जातिजरामरणमुक्ताः सिद्धिमनन्तज्ञानदर्शनसुखवीर्यरूपामवस्थामुपयान्ति धुतक्लेशा: सन्त इति ॥८८७॥
पुनरपि ध्यान की स्थिरता को बताते हैं
गाथार्थ–पश्चिम, उत्तर, पूर्व और दक्षिण दिशाओं की वायु से सुमेरु पर्वत चलायमान नहीं होता है इसी प्रकार से अचलित योगो सतत ही ध्यान किया करते हैं ।।८८६॥
आचारवृत्ति -जैसे पूर्व-पश्चिम, दक्षिण-उत्तर वायु से पर्वतराज सुमेरु अपने स्थान से च्युत नहीं होता है, उसी प्रकार से सर्व उपसर्ग आदि से अकम्प भाव को प्राप्त हुए योगी निरंतर समय-समय से असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा करते हुए समाधि-उत्तमध्यान को ध्याते हैं । यद्यपि यहाँ पर जाति की अपेक्षा से 'ध्यायति' यह एक वचन है तो भो ध्यायन्ति ध्यानं' ऐसा बहुवचन का ही अर्थ करना चाहिए।
इसलिए ऐसा ध्यान ध्याकर वे क्या फल पाते हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-तेरह क्रिया और तेरहविध चारित्र को पूर्ण करनेवाले मुनि बँधे हुए और पुष्ट कर्मों को नष्ट करके जरा और मरण से रहित होते हुए क्लेश से रहित होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं ॥८८७॥
__ आचारवृत्ति-धर्म-शुक्ल ध्यान को ध्याकर और महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति रूप तेरह विध चारित्र में एवं पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक-क्रिया तथा आसिका-निषद्यका, इन तेरह क्रियाओं में परम उत्कर्ष अवस्था को पहुँचकर महामुनि बँधे हए, पुष्ट हुए तथा निकाचित रूप ऐसे दुःखदायी कर्मों को निर्मूलसे नष्ट कर देते हैं। पुनः जन्म जरा और मरण से रहित होकर तथा क्लेश-संसार के सर्व दुःखों को समाप्त करके अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य इन अनन्तचतुष्टय को अवस्था रूप सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं।
१. क. ध्यानस्थैर्यमाह।
२. व. बद्धपुष्टनिधत्तिनिकाचितं ।
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