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अनगारभावनाधिकारः ]
[१०१
अट्ठविहकम्ममूलं खविदकसाया खमादिजहि ।
उद्धदमूलो व दुमो ण जाइदव्वं पुणो अस्थि ॥८८४॥ अष्टविधस्य कर्मणो मूलं कारणं । कि ते ? कषायाः क्रोधादयस्तेषु सत्सु सर्वकर्मप्रकृतीनामवस्थानं ते च कषायाः क्षमादियुक्त: क्षमामार्दवार्जवसंतोषपरैः क्षपिता विनाशिताः पुनस्तेषामुत्पत्ति स्ति यथोद्धृतमूलस्य द्रु मस्य निर्मूलितस्य वृक्षस्येव जनितव्यं नास्ति, यथोद्धृतमूलो वृक्षो न जायते कारणाभावातथा कर्मनिचयो न पुनरागच्छति कारणाभावादिति ॥८८४॥ तस्मात्
अवहट्ट अट्ट रु{ धम्म सुक्कं च झाणमोगाढं ।
ण च 'एदि पधंसेदु अणियट्टी सुक्कलेस्साए॥८॥ तस्मात्कषायनिर्मलनायार्तध्यान रौद्रध्यानं चापहृत्य परित्यज्य धर्मध्यानं शुक्लध्यानं च चिन्तयेति शेष: यतः समीचीनध्यानावगाढं शोभनध्याने निविष्टमानसं यति शुक्ललेश्यया सहितं शुद्धयोगवत्या समन्वितं अनिवृत्तिगुणस्थानगतं कषाया न शक्नुवन्ति न किंचित्कुर्वन्ति प्रधर्षयितुं कदर्थयितुं । अथवा 'अणियट्टी' पदस्थाने 'परीसहा' इति पाठस्तेन परीषहा न शक्नुवन्ति प्रधर्षयितुं ध्यानप्रविष्टं मुनिमिति ॥८॥
गाथार्थ-आठ प्रकार के कर्म के लिए मूल कारण ऐसी कषाओं को जड़मूल से उखाड़ हुए वृक्ष की तरह क्षमादि से युक्त मुनियों के द्वारा नष्ट कर दिया गया है कि जिससे वे पुनः उत्पन्न ही न हो सकें ।।८८४॥
आचारवृत्ति-आठ प्रकार के कर्मों के लिए मूल कारण क्रोधादि कषायें हैं क्योंकि उन कषायों के होने पर ही सभी कर्म-प्रकृतियों का अवस्थान-स्थितिबन्ध होता है । क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष में तत्पर हए मुनियों ने इन कषाओं का विनाश कर दिया है। जड़ से नष्ट कर देने पर पुनः उनकी उत्पत्ति नहीं हो सकती है जैसे कि वृक्ष को जड़मूल से उखाड़ देने पर वह पुनः उत्पन्न नहीं हो सकता है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति का कारण समाप्त हो चका है उसी प्रकार से कर्मसमूह पुनः नहीं आते हैं क्योंकि उनके कारणों का-कषायों का विनाश हो चुका होता है।
इसलिए क्या करना ? सो ही बतलाते हैं
गाथार्थ-आर्त-रौद्र दुर्ध्यान का परिहार करके धर्म-शुक्ल में लीन, शुक्ल लेश्या सहित मुनि को अनिवृत्तिगत कषायें कष्ट नहीं दे सकतो हैं ॥८८५॥
प्राचारवृत्ति—इसलिए कषायों का निर्मूलन करने के लिए आर्तध्यान ओर रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तवन करो ऐसी क्रिया का अध्याहार हो जाता है, क्योंकि शुक्ल लेश्या से सहित और समीचीन ध्यान में मन को तल्लीन करनेवाले एवं शुद्धोपयोग से समन्वित यतिराज को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होनेवाली कषायें कुछ भी पीडा देने में समर्थ नहीं हो सकती हैं। अथवा 'अणियट्टी' पद के स्थान में 'परीसहा' ऐसा भी पाठ पाया जाता है जिसका अर्थ है कि ध्यान में प्रवेश करनेवाले मुनि को परीषह पीडित नहीं कर सकते हैं।
१. क तत्।
२. क. कारणाभावादेवं।
३.क० यति ।
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