SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 131
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनगारभावनाधिकारः ] |९७ इन्द्रियचौरास्त्रिदंडगुप्तर्मनोवाक्कायसंयुतः व्यवसितैश्चारित्रयोगतन्निष्ठर्वशे व्यवस्थापिताः स्ववशं नीताः सुष्ठ घोरा यद्यपि तथापि प्रलयं प्रापिता मुनिभिरिति ॥८७५॥ दृष्टान्तद्वारेण मनोनिग्रहस्वरूपमाह जह चंडो वणहत्थी उद्दामो णयर रायमग्गम्मि । तिक्खंकुसेण धरिदो णरेण दिढसत्तिजुत्तेण ॥८७६॥ तह चंडो मणहत्थी उद्दामो विषयराजमग्गम्मि। णाणंकुसेण धरिदो रुद्धो जह मत्तहत्थिव्व ॥८७७॥ यथा येन प्रकारेण चंटो गलत्रिगंडप्रजातप्रकोपो वनहस्ती उद्दामा शृंखलादिबंधनरहितो नगरराजमार्गे दृढशक्तियुक्त न नरेण तीक्ष्णांकुशेन करणभूतेन धृत आत्मवशे स्थापित इति ॥८७६।। तथा तेनव प्रकारेण चंडो नरकगत्यादिषु नराणां प्रक्षेपणपरो मनोहस्ती उद्दामा संयमादिशृंखलादिरहितो विषय राजमार्ग रूपादिविषयराजवर्त्मनि धावन् ज्ञानांकुशेन पूर्वापरविवेकविषयावबोधांकुशेन धृत आत्मवशं नीतः, यथा मत्तहस्ती रुद्धः सन्न किंचित्कतुं समर्थो यत्र नीयते हस्तिपकेन तत्रैव याति एवमेव वाले, स्थिरता से रहित-चंचल, क्रोध को प्राप्त हुए जो ये इन्द्रियरूपी चोर हैं वे यद्यपि भयंकर हैं फिर भी चारित्र और योग के अनुष्ठान में लगे हुए मुनियों ने मन-वचन-काय के निग्रह से इन्हें अपने वश में कर लिया है अर्थात् इनका विनाश कर दिया है। दृष्टान्त के द्वारा मन के निग्रह का स्वरूप कहते हैं - गाथाथै-जैसे नगर के राजमार्ग में उदंड होता हुआ क्रोधी वन-हाथी दृढ़ शक्तिशाली मनुष्य के द्वारा तीक्ष्ण अंकुश से वश में कर लिया जाता है वैसे ही विषयरूपी राजमार्ग में उद्दण्ड फिरता हुआ प्रचंड मनरूपी हस्ती ज्ञानरूपी अंकुश से वशीभूत किया जाता है जैसेकि मदोन्मत्त हाथी रोक लिया जाता है ॥८७६-८७७॥ आचारवृत्ति-जैसे जिसके गण्डस्थल से मद झर रहा है और जो अत्यन्त कुपित हो रहा है ऐसा वनहस्ती यदि सांकल आदि बंधन से रहित हो गया है और नगर के राजमार्गों में दौड़ रहा है तो दृढ शक्तिशाली मनुष्य तीक्ष्ण अंकुश के द्वारा उसे अपने वश में कर लेता है। उसी प्रकार प्रचण्ड नरक आदि दुर्गतियों में मनुष्यों को डाल देने में तत्पर ऐसा मनरूपी हाथी उद्दण्ड है-संयम आदि सांकलों से रहित है, और रूप, रस आदि पचेंद्रियों के विषयरूपी राजमार्ग में दौड़ रहा है, उसको पूर्वापर विवेक के विषयभूत ज्ञानरूपी अंकुश के द्वारा मुनि अपने वश कर लेते हैं। जैसे मत्त हा हाथी वशीभूत हो जाने पर कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है जहाँ उसको महावत ले जाता है वहीं पर उसे जाना पड़ता है उसी प्रकार से मुनि भी अपने मन रूपी मत्त हाथी को जब बाँधकर रख लेते हैं तब उसे वे जहाँ १.क. तत्र। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy