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________________ ] मूलाचारे व्यवस्थिता धीरा अकंपभावमुपगता: पंचेन्द्रियार्थेभ्यो विरता जितेन्द्रिया: पंचमगति सिद्धगति मगयमाणा अनन्त चतुष्टयेनात्मानं योजयन्तः श्रवणा इत्थंभूतास्तप:शुद्धः कर्तारो भवन्तीति ॥८७३।। तथा 'ते इंदिएसु पचसु ण कयाइ रागं पुणो वि बंधंति ॥ उण्हेण व हारिइं णस्सदि राओ सुविहिदाणं ॥८७४॥ ते पूर्वोक्ताः श्रमणा इन्द्रियेषु पंचसु रागं कदाचिदपि न पुनर्बध्नति यतस्तेषां सुविहितानां शोभनानुष्ठानानां नश्यति रागो यथोष्णेन हारिद्रो राग: । किमुक्त भवति ? यद्यपि कदाचिद्रागः स्यात्तथापि पुनरतुबन्धं न कुर्वन्ति पश्चात्तापेन तत्क्षणादेव विनाशमुपयाति हरिद्रारक्तवस्त्रस्य पीतप्रभारविकिरणस्पष्टेवेति ॥७॥ तपःशुद्धि निरूप्य ध्यानशुद्धि निरूपयस्तावत्तदर्थमिन्द्रियजयमाह विसएसु पधावंता चवला चंडा तिदंडगुत्तेहिं । इंदियचोरा घोरा वसम्मि ठविदा ववसिदेहि ॥८७५॥ विषयेषु रूपरसगन्धस्पर्शशब्देषु प्रधावंतः प्रसरन्तः, चपलाः स्थैर्यवजिताः, चंडाः कोपं गच्छन्तः, प्राप्त हो चुके हैं, पंचेन्द्रियों के विषयों से विरत-जितेन्द्रिय हैं, सिद्ध गति को ढूंढ़ते हुए अर्थात् अनन्त चतुष्टय में अपनी आत्मा को लगाते हुए वे मुनि तपःशुद्धि के करनेवाले होते हैं। उसी बात को स्पष्ट करते हैं गाथार्थ-वे मुनि पाँचों इन्द्रियों में कदाचित् भी पुनः राग नहीं करते हैं; क्योंकि सम्यक् अनुष्ठान करनेवालों का राग ताप से हल्दी के रंग के समान नष्ट हो जाता है ।।८७४॥ आचारवत्ति-उपर्युक्त गुणों से सहित श्रमण पंचेंद्रियों के विषयों में कभी भी पुनः राग नहीं करते हैं क्योंकि शुभ अनुष्ठान करनेवाले उन मुनियों का राग वैसे हो नष्ट हो जाता है कि जैसे उष्णता से हल्दी का राग नष्ट हो जाता है । अभिप्राय यह हुआ कि यद्यपि मुनि के कदाचित् राग उत्पन्न हो जावे तो भी वे उसमें पुनः आसक्त नहीं होते हैं। पुनः पश्चात्ताप से वह राग क्षण मात्र में ही नष्ट हो जाता है। जैसे कि हल्दी से रंगा हुआ वस्त्र पीला हो जाता है और सूर्य की किरणों के स्पर्श से वह पीलापन नष्ट हो जाता है वैसे हो मुनि पहले तो राग को छोड़ ही चुके होते हैं फिर भी यदि कदाचित् हो भी जावे तो वे उसे शीघ्र ही दूर कर देते हैं। तपःशद्धि का निरूपण करके अब ध्यानशुद्धि को कहते हुए उसमें पहले ध्यानशुद्धि के लिए इन्द्रियजय को कहते हैं गाथार्थ-विषयों में दौड़ते हुए चंचल, उग्र और भयंकर इन इन्द्रियरूपी चोरों को चारित्र के उद्यमी मुनियों ने तीन दण्ड की गुप्तियों से वश में कर लिया है ।।७।। आचरवत्ति-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द इन पंचेंद्रियों के विषयों में दौड़ लगाने १. व इंदिएसु पंचसु कयाइ रागं पुणो ण बंधति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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