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[मूलाचारे
यतिना मनोहम्ती रुद्धः सन् यत्र व्यवस्थाप्यते तत्रव तिष्ठति वशीभूतः सन्निति ॥८७७॥ तथा
च एदि विणिस्सरिदु मणहत्थी झाणवारिबंधणियो।
बद्धो तह य पयंडो विरायरज्जूहि धीरेहि ॥७॥ यथा रुद्धः सन् मत्तहस्ती वारिबंधेन न शक्नोति विनिःसतुं निर्गन्तुं न समर्थस्तथा मनोहस्ती ध्यानवारिबंधनं नीतःप्रापितोऽतिशयेन प्रचंडो विरागरज्जुभिर्बद्धो वैराग्यादिवरत्राभिर्धारः संयमितो निर्गन्तुं न शक्नोतीति ॥८७८॥ ध्यानार्थ नगरं प्राकारादिसमन्वितं रचयन्नाह
धिदिधणिदणिच्छिदमदी चरित्त पायार गोउर तुंगं ।
खंतोसुकदकवाडं तवणयरं संजमारक्खं ॥८७६॥ धृतिः 'संतोषादिस्तस्यामत्यर्थं "निश्चितं मतिज्ञानं धृत्यतिशयनिश्चितमतिर्योत्साहतत्त्वरुचिसमन्वितविवेक: नारित्रं त्रयोदशप्रकारपापक्रियानिवृत्तिः, प्राकारः पाषाणमय इष्टकामयो वा परिक्षेपः, पर व्यवस्थित करते हैं वह वशीभूत होता हुआ वहीं पर ठहर जाता है। अर्थात् मुनि पंचें.
यों के विषयों से अपने मन को हटाकर, अपने आधीन रखकर उसे जिस क्रिया में या ध्यान में लगाते हैं उसी में वह एकाग्र हो जाता है, अपनी चंचलता नहीं करता है।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं
गाथार्थ-उसी प्रकार से धीर पुरुषों द्वारा वैराग्यरूपी रस्से से बांधा गया, एवं ध्यानरूपी बन्धन को प्राप्त हुआ यह प्रचण्ड मनरूपी हाथी बाहर निकल नहीं पाता है ॥८७८॥
प्राचारवृत्ति--जैसे बाँधा हुआ मत्तहाथी अपने साँकल के बन्धन से निकलने में समर्थ नहीं होता है वैसे ही यह मनरूपी हाथी ध्यानरूपी सांकल के बन्धन को प्राप्त हआ है अथवा ध्यानरूपी खम्भे से बँधा है। यह प्रचंड है तो भी वैराग्य आदि मोटे रस्सों से धीर साधुओं ने इसे नियन्त्रित किया हुआ है अतः यह उस बन्धन से निकलने में समर्थ नहीं हो पाता है ।
अब ध्यान के लिए परकोटे से सहित नगर को रचते हुए कहते हैं
गाथार्थ-धैर्य से अतिशय निश्चित विवेकरूपी परकोटा है, चारित्ररूपी ऊँचे गोपुर हैं, क्षमा और धर्म ये दो किवाड़ हैं और संयम जिसका कोतवाल है ऐसा यह तपरूपी नगर है।८८६॥
__ आचारवृत्ति-धैर्य, उत्साह और तत्त्वरुचि से समन्वित जो विवेक है वह तपरूपी नगर का परकोटा है। पापक्रिया से निवृत्तिरूप जो तेरह प्रकार का चारित्र है वही बहुत ऊंचे गोपुर-ऊँचे-ऊँचे कूट हैं । क्षमा और धर्म ये युगल फाटक हैं अथवा क्षमा ही सुयंत्रित फाटक हैं,
१. क० संयतेन।
२. क० तत्र।
३. . क० संतोषः।
४. क० निश्चिता मतिज्ञान ।
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