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अनगार भावनाधिकारः ]
तथा
ण्डभडमल्लकहाम्रो मायाकरजल्लमुट्ठियाणं च । अज्जउललंघियाणं कहासु ण वि रज्जए धीरा ॥८५८॥
ar भरतपुत्रका रंगोपजीविनः, भटा युद्धसमर्थाः सहस्रादीनां जेतारः, मल्ला अंगयुद्धसमर्था अनेककच्छपबंधादिकरणसमर्थाः, मायां महेन्द्रजालादिकं प्रतारणं कुर्वन्तीति मायाकरा मायाकृत रंगोपजीविनः, जल्ला मत्स्यबधा: शाकुनिकाश्च षट्टिकाम्लेच्छादयश्च, मुष्टिका द्यूतकारा 'द्यूतव्यसनिनः, अज्जउला - आर्या कुलमनायो दुर्गा येषां ते आर्याकुला हस्तपादशिरःशरीरावयवभेदेन कुशला दुर्गपुत्रिका जीवहिंसनरता अथवा अजाविकारक्षकाः सर्व पशुपालाश्च लंधिका' वरत्रात्रेणूपरिनृत्तकुशला इत्येवमादीनां याः कथास्तद्व्यापारकरणं सरागचेतसा स शोभनतरोऽशोभनतरो वा कुशलोऽकुशलो वेत्येवमादयस्तासु कथासु पूर्वोक्तासु नैव रज्यंति नैवानुरागं कुर्वन्ति धीरा वैराग्यपरा इति ॥ ६५८॥
न केवलं विकथा वचनेन वर्जयंति कि तु मनसाऽपि न कुर्वन्तीत्याह-
विकहा विसोत्तियाणं खणमवि हिदएण ते ण चितंति । धम्मे लद्धमदीया विका तिविहेण वज्जंति ॥ ८५ ॥
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उन कथाओं के और भी भेद बताते हैं
गाथार्थ - नटों की कथा, भटों की कथा, मल्लों की कथा, मायाकरों की कथा, धीवरों कथा, जुआरियों की कथा, दुर्गा आदि देवियों को कथा, बांस पर नाचनेवालों की कथा इत्यादि कथाओं में धीर मुनि अनुरक्त नहीं होते हैं ।। ८५८ ||
आचारवृत्ति--नट - भरतपुत्र अर्थात् नृत्य से उपजीविका करनेवाले, भट - युद्ध में समर्थ अर्थात् हजारों योद्धाओं को जीतनेवाले, मल्ल - कुश्ती खेलने में पहलवान अर्थात् अनेक प्रकार के कच्छप बन्ध आदि करने में समर्थ मल्ल, मायाकर- इन्द्रजाल आदि से प्रतारणा करने वाले अर्थात् जादूगर के खेल दिखाकर आजीविका करनेवाले; जल्ल - मछलीमार, पक्षीमार, खटीक, म्लेच्छ आदि लोग, मुष्टिक - जुआ खेलनेवाले, आर्याकुल- आर्या - दुर्गादेवी, शक्तिदेवता जिनका कुल - आम्नाय हैं ऐसे लोग आर्याकुल वाले हैं । वे हाथ, पैर, शिर के अवयवों को भेदने में कुशल होते हैं, दुर्गादेवी या उसके उपासक जीव-हिंसा में तत्पर लोग; अथवा बकरी-भेड़ के रक्षक, सर्व पशुओं के पालक, लंघिका - रस्सी और बांस पर नृत्य करने में कुशल, इत्यादि प्रकार के नट, भट आदि की कथा करना, उनके कार्यों में उपयोग लगाना, सरागचित्त होकर चर्चा करना कि वह बहुत सुन्दर है, वह असुन्दर है, अथवा वह कुशल है या अकुशल है इत्यादि रूप से इन उपर्युक्त कथाओं में वैराग्यशील मुनि अनुराग नहीं करते हैं ।
इन कथाओं को केवल वचन से ही वर्जित नहीं करते हैं किन्तु मन से भी इनका चिंतवन नहीं करते हैं, सो ही बताते हैं
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गाथा - मुनि मन से क्षण मात्र भी विकथा और कुशास्त्रों का चिन्तवन नहीं करते हैं । धर्म में बुद्धि लगानेवाले वे मुनि मन-वचन-काय से विकथाओं का त्याग कर देते हैं ॥ ८५ ॥
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१. क ० तेन व्यसनिनः । २. क० लंपाका ३. क० हृदनेनापि ।
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