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[ मूलाचारे
इत्येवमादिविकथा: स्त्रीभक्तचौरराजकथाः विश्रुतिकथाश्च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपसां प्रतिकूलवचनानि तत्प्रतिबद्धपरिणामांश्च क्षणमपि नयनोन्मेषमात्रमपि हृदयेन चेतसा न ते मुनयश्चिन्तयंति न व्यवस्थापयंति धर्म धर्मविषये लब्धमतयो यतो विकथास्त्रिप्रकारेण मनोवाक्कायवर्जयन्तीति ।।८५६।। तथा
कुक्कुय कंदप्पाइय हास उल्लावणं च खेडं च ।
मददप्पहत्थवणि ण करेंति मुणो ण कारेंति ॥८६०॥ कुक्कुय-कोत्कुच्यं हृदयकंठाभ्यामव्यक्तशब्दकरणं, कंदप्पाइय-कंदायितं कामोत्पादकवचनान्यथवा रागोद्रेकात्प्रहाससंमिश्राशिष्टवाक्यप्रयोगः कंदर्पः, हासं-हास्यमुपहास्यवचनानि, उल्लावणंअनेकवदग्ध्ययुक्तरम्यवचनं, खेडं चोपप्लवचनं अदुष्टहृदयेन परप्रतारणं, मददर्पण स्वहस्तेनान्यहस्तताडनं च मुनयो न कुर्वन्ति न कारयंति नाऽप्यनुमन्यन्ते च ॥८६० ॥
यतः
ते होंति णिव्वियारा थिमिदमदी पदिट्ठिदा जहा उदधी। णियमेसु दढव्वदिणो पारत्तविमग्गया समणा ॥८६१॥
आचारवत्ति-उपर्युक्त कही हुई विकथाएँ, स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा और राजकथा तथा विश्रुतिकथा अर्थात् सम्यदर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनके प्रतिकूल वचन तथा इनसे सम्बन्धित परिणामों को भी वे मुनि नेत्र की पलक लगने के समय रूप निमेष मात्र काल के लिए भी मन से चिन्तवन नहीं करते हैं और न ही उनकी व्यवस्था करते हैं। धर्म में अपनी बुद्धि को एकाग्र करनेवाले वे महामुनि मन-वचन-काय पूर्वक इन कथाओं का त्याग कर देते हैं।
उसी प्रकार से और भी बताते हैं---
गाथार्थ-काय की कुचेष्टा, कामोत्पादक वचन, हँसी, वचनचातुर्य, परवंचना के वचन, मद व दर्प से करताड़न करना आदि चेष्टाएँ मुनि न करते हैं न कराते हैं ।।८६०॥
आचारवृत्ति-कौत्कुच्य-हृदय और कण्ठ से अव्यक्त शब्द करना, कर्दपायितकामोत्पादक वचन बोलना, अथवा राग के उद्रेक से हँसी मिश्रित अशिष्ट वचनों का प्रयोग करना, हास्य-उपहास के वचन बोलना, उल्लापन --अनेक चातुर्ययुक्त मनोहर वचन बोलना, खेडउपप्लव नास्तिवाद के वचन या सरल हृदय से भी पर को प्रतारित करना, तथा मद के गर्व से अपने हाथ से दूसरों के हाथ को ताड़ित करना । ऐसे कार्य ये मुनि न स्वयं करते हैं, न कराते हैं और न अनुमति ही देते हैं।
क्यों नहीं करते हैं ? सो हो बताते हैं।
गाथार्थ-वे निर्विकार अनुद्धतमनवाले, समुद्र के समान गम्भीर, नियम अनुष्ठानों में दृढ़वती तथा परलोक के अन्वेषण में कुशल श्रमण होते हैं ।।८६१॥
१. क. वजिताः ।
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