SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४] [ मूलाचारे पूर्वरत्या क्रीडितानि पूर्वकाले यान्युपभोगितानि स्त्रीवस्त्राभरणराज्यहस्त्यश्वरथादिकानि यानि' ऋद्धिविभूतिर्द्रव्यसुवर्णरूप्यादिसंपत्तिः सौभाग्यादिकं च भोगा: पुष्पचन्दनकुंकुमादिकानि भोजनविधिश्च घृतपूराशोकपतिशाल्योदनानि चतुर्विधाहारप्रकारस्तदेतत्सर्वं न ते मुनयः कस्यचिदपि कथयंति नापि मनसा विचिन्तयन्ति, तत्सर्वमुपभुक्तं न वचनेनान्यस्य प्रतिपादयन्ति नाऽपि चित्ते कुर्वन्तीति ।।८५४॥ उज्झनशुद्धि व्याख्याय वाक्यशुद्धि निरूपयन्नाह भासं विणयविरुणं धम्मविरोही विवज्जए वयणं। पुच्छिदमपुच्छिदं वा ण वि ते भासंति सप्पुरिसा ॥८५५॥ — भाषां वचनप्रवृत्तिमार्या कर्णाटिकां गौडी लाटी विनयविहीनां खरपरुषादिसमन्वितां वर्जयन्ति, वचनं धर्मविरोधि रम्यमपि वचनं धर्मप्रतिकूलं वर्जयन्ति, अन्यदपि यद्विरुद्ध पुष्टाः संतोऽपष्टाश्च परेण नियुक्ता अनियुक्ताश्च न ते सत्पुरुषा भाषते न ब्रुवत इति ॥८५५॥ कथं तहि तिष्ठन्तीत्याशंकायामाह अच्छोहिय पेच्छंता कर्णेहिय बहुविहाइं सुणमाणा। अत्थंति मूयभूया ण ते करेति हु लोइयकहाओ ॥५६॥ __ आचारवत्ति-पूर्व काल में बड़े प्रेम से जिन स्त्री, वस्त्र, आभरण, राज्य, हाथी, घोड़े रथ आदि का उपभोग किया है, जो ऋद्धि-द्रव्य, सोना, चाँदी, सम्पत्ति आदि विभूति, सौभाग्य आदि तथा पुष्प, चन्दन, कुंकुम आदि भोगसामग्री; पुआ, अशोकवतिका, शालि का भात आदि चतु-विध आहार एवं ऐसे ही और भी जो नाना प्रकार के भोगोपभोग पदार्थ हैं-इन सबका जो गृहस्थाश्रम में अनुभव किया है इसे वे न तो वचनों द्वारा किसी से कहते हैं और न ही मन में उनका विचार ही लाते हैं। अब उज्झनशुद्धि का व्याख्यान करके वाक्यशुद्धि का निरूपण करते हैं गाथार्थ-विनय से शून्य, भाषा और धर्म के विरोधी वचन को वे छोड़ देते हैं। वे साधु पूछने पर अथवा नहीं पूछने पर भी वैसा नहीं बोलते हैं । ॥८५५।।। प्राचारवत्ति-वचन की प्रवृत्ति का नाम भाषा है। उसके आर्य, कर्णाटक, गौड़, लाट आदि देशों की अपेक्षा नाना भेद होते हैं । वे मुनि ऐसी आर्य कानड़ी, गौड़ी, लाटी आदि भाषा विनयरहित एवं खरपरुष-कठोर आदि वचन से सहित नहीं बोलते हैं । तथा मनोहर भी वचन यदि धर्म के प्रतिकूल हैं तो वे मुनि नहीं बोलते हैं। ऐसे ही अन्य भी जो धर्मविरुद्ध वचन, भले ही किसी ने उनसे पूछा हो या नहीं पूछा हो, वे नहीं बोलते हैं। अर्थात् किसी भी देश की भाषा में वे कठोर आदि अथवा आगमविरुद्ध वचन नहीं बोलते हैं। तब वे कैसे रहते हैं ? ऐसी आशंका हाने पर कहते हैं गाथार्थ-वे मुनि नेत्रों से देखते हुए और कानों से बहुत पुकार को सुनते हुए भी मूक के समान रहते हैं, किन्तु लौकिक कथाएँ नहीं करते हैं । ८५६।। १.क० या च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy