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________________ अनगार भावनाधिकारः ] एदारिसे सरीरे दुग्गंधे कुणिमपूदियमचोक्खे | सडणपडणे प्रसारे रागंण करिति सप्पुरिसा ॥ ८५२ ॥ एतादृशे शरीरे ईदृग्भूते देहे दुर्गन्धे कुणपपूतिके कश्मलेन कुथिते शुचित्वेन विवजिते शुचिविवर्जिते शतनपतनेऽसारे रागं स्नेहं न कुर्वते सत्पुरुषाः साधव इति ॥ ८५२ ॥ उज्झनशुद्धिमुपसंहरन्नाह - जं वंत गिहवासे विसय सुहं इंदियत्थपरिभोए । खुण कदाइभूदो भुंजंति पुणो वि सप्पुरिसा ॥ ८५३ ॥ यत्किचिद्वातं त्यक्तं गृहवासे विषयसुखं गार्हस्थ्यं रूपरसगन्धस्पर्शद्वारोद्भूतं जीवसंतर्पणकारणमिन्द्रियार्थमिन्द्रिय कारणेन जनितं परिभोगाश्च ये च स्त्र्यादिका वान्ताः परिभोगनिमित्तं वा तत्सुखं तानिन्द्रियार्थान् तांश्च परिभोगान् खलु स्फुटं कदाचिदपि भूदो — भूतं समुपस्थितं केनचित्कारणान्तरेण न भुंजसे न परिभोगयन्ति सत्पुरुषाः साधवः, यद्वान्तं विषयसुखं तदेव केनचित्कारणान्तरेण समुपस्थितं यदि 'भवेत्तदापि सत्पुरुषा न भुंजते न सेवन्त इति ॥ ५५३ ॥ तथा [ ८३ पुव्वरदिकेलिदाई जा इड्ढी भोगभोयणविहिं च । fad कति कस्स वि ण वि ते मणसा विचितंति ॥ ८५४ ॥ गाथार्थ -- दुर्गन्धित, मुर्दा के समान घृणित, अपवित्र, पतन - गलन रूप, असार ऐसे शरीर में सत्पुरुष राग नहीं करते हैं ।। ८५२ || Jain Education International श्राचारवृत्ति-- दुर्गन्धयुक्त, मुर्दे के समान व सड़ा हुआ, पवित्रता से रहित, गलन-पतन, रूप, असारभूत ऐसे इस शरीर में साधुजन स्नेह नहीं करते हैं । उज्झनशुद्धि का उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ - गृहवास में जो इन्द्रियों द्वारा पदार्थों के अनुभव से विषय - सुख थे उनको छोड़ दिया है वे यदि कदाचित प्राप्त भी हुए तो भी साधु उनका सेवन नहीं करते हैं || ८५३ ॥ श्राचारवृत्ति -- गृहस्थावस्था में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श द्वारा उत्पन्न हुए, जीव को सन्तर्पित करनेवाले, इन्द्रियों के विषयभूत ऐसे विषयसुख जो कुछ भी भोगे थे अर्थात् स्त्री से माला आदि जो भी भोगोपभोग सामग्री गार्हस्थ्य जीवन में अनुभव की थी उसको वमन कर दिया । पुनः यदि वे इन्द्रिय-सुख और भोग-सामग्री उपलब्ध भी हो जावें तो भी किसी भी कारण विशेष से पुनः वे साधु उसका उपभोग नहीं करते हैं। जिन विषय-सुखों को उच्छिष्टवत् समझ कर छोड़ दिया है पुनः वे उसका सेवन कैसे कर सकते हैं ? अर्थात् वे विषय-सुखों से सर्वथा विरक्त ही रहते हैं । को और स्पष्ट करते हैं गाथार्थ - पूर्व में स्नेहपूर्वक भोगे गये जो वैभव, भोग और भोजन आदि हैं उनको वे मुनि न किसी के समक्ष कहते हैं और न वे मन से उनका चिन्तवन ही करते हैं ।। ८५४ ।। १. भवेत्पुनरपि न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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