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________________ 50] पुनरपि शरीरस्याशुचित्वं प्रतिपादयन्नाह - एवं सरीरमसुई णिच्च कलिकलुस भायणमचोक्खं । तोछाइद ढिड्डिस खिब्भिसभरिदं अमेज्झघरं ॥ ८४६ ॥ शरीरमिदमशुचि यतो नित्यं कलिकलुषभाजनं रागद्वेषपात्र, अचोक्षमशुभं शुभलेश्ययापि परिहीनं. छादितं चर्मणा संवृतमन्तरभ्यन्तरं यस्य तदन्तश्छादितं, अन्तःशब्दस्य पूर्वनिपातो ज्ञापकात्, अथवांत्रैमसिरज्जुभिश्छादितं परिवेष्टितं, ढिड्ढसं कर्पाससमानं रुधिराहितमभ्यन्तरस्थं मांसवसाविशेषरूपं, खिब्भिसं किल्विषं शुक्रशोणिताशुचिकाले ज्जकादिकं तैर्भृतं पूर्ण, अमेध्यगृहं मूत्रपुरीषाद्यवस्थानमिति ||८४६ || किल्विषस्वरूपमाह - वसमज्जमंससोणिय पुष्पसकालेज्ज सिंभसीहाणं । सिरजाल अट्टिiकड चम्में णद्ध सरीरघरं ॥ ८४७॥ बीभच्छं विच्छुइयं थूहायसु साणवञ्चमुत्ताणं । सूययसि पयलयलालाउलमचोक्खं ॥ ८४८ ॥ वसा मांसगतस्निग्धत्वं तैलरूपं, मज्जाऽस्थिगतसारः, मांस रुधिरकार्य, शोणितं रुधिरं रसकार्य फुफ्फुसं फेनरूपं निःसारं. कालेज्जकमतीवकृष्ण मांसखंडरूपं, श्लेष्मसिंहानकं, शिराजालमस्यीन्येतैः संकीर्ण संपूर्ण, चर्मणा नद्ध ं त्वक्प्रच्छादितं शरीरगृहमाशुवीति संबंधः ||८४७|| तथा [ मूलाचारे पुनरपि शरीर की अशुचिता को बतलाते हैं गाथार्थ -- यह शरीर अपवित्र है, नित्य ही कलि कलुष का पात्र है, अशुभ है, इसका अन्तर्भाग ढका हुआ है, कपास के ढेर के समान है, घृणित पदार्थों से भरा हुआ है और विष्ठा का घर है | ।। ८४६॥ आचारवृत्ति - यह शरीर सदा ही अपवित्र है, राग-द्वेष का भाजन है, शुभ लेश्यावर्ण से हीन होने से अशुभ है, इसका भीतरी भाग चर्म से ढका हुआ है । यहाँ पर 'अन्तः' शब्द का पूर्ण निपात हो गया है अथवा यह आंतों से, मांस के रज्जु से वेष्ठित है, ढिड्ढस अर्थात् कपास के समान है, अभ्यन्तर में जिसके रुधिर चल रहा है ऐसे मांस और वसा का विशेषरूप है, रज-वीर्य कलेजा आदि घृणित पदार्थों से भरा हुआ है तथा मल-मूत्र आदि का स्थान है । किल्विष का स्वरूप कहते हैं Jain Education International गाथार्थ - वसा, मज्जा, मांस, खून, फुप्फुस, कलेजा, कफ, नाकमल, शिराजाल और हड्डी इनसे व्याप्त यह शरीररूपी गृह चर्म से ढका हुआ है। घृणित, थूक, नाकमल, विष्ठा, मूत्र इनसे पवित्रता रहित तथा अश्रु, पीव, चक्षुमल से युक्त, टपकती हुई लार अशुभ है ।। ८४-८४८।। व्याप्त यह शरीर आचारवृत्ति - वसा - माँस की चिकनाई जो कि तेल के समान होती है, में होनेवाला सार, मांस- रुधिर का कार्य, शोषित - खून जो कि रस का कार्य है, निःसारपदार्थ, कलेजा - अतीव काले मांस का खण्डरून, श्लेष्म कक, सिंहाणक शिराओं का समूह और हड्डियाँ, यह शरीर इन सबसे भरा हुआ है, और चर्म For Private & Personal Use Only मज्जा ---ह - हड्डियों फुकुम - फेन रूप नाक का मल, से आच्छादित www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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