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अनगार भावनाधिकारः ]
णानि दुःखादीनि च कार्याणि सर्वस्य कृत्स्नस्य कार्यकारणरूपस्य कर्मणो विनाशे समर्थमिति ॥ ६४३॥ पुनरपि क्रियां कुर्वन्तीत्याह -
जिraणणिच्छिद मदीअ - विरमणं प्रभुर्वेतिसप्पुरिसा । णय इच्छंति अकिरियं जिणवयणवदिक्कसं कायुं ॥। ८४४ ॥
जिनवचने निश्चितमतयः सम्यक्त्वार्थरुचयः, विरमणं चारित्रं "अपि मरणमिति" पाठान्तरं अभितिष्ठति सम्यगभ्यु न गच्छति सत्पुरुषाः सत्व संपन्नाः, न चैवेच्छंति नैव समीहते जिनवचनव्यतिक्रमं कृत्वाक्रियां शरीरव्याध्यादिप्रतीकाराय जिनागमं व्यतिक्रम्या प्रासुकसेवनं मनागपि प्राणत्यागेऽपि नेच्छतीति ॥ ६४४ ॥ अन्यच्चेत्थंभूते शरीरे कथमस्माभिः प्रतीकारः क्रियत इत्याशंकायामाह -
रोगाणं आयदणं वाधि'सदसमुच्छिदं सरीरधरं ।
धीरा खणमवि रागं ण करेंति मुणी सरीरम्मि ॥ ८४५ ॥
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इदं शरीरं रोगाणामायतनं निलयः व्याधिशतैः सम्मूच्छितं निर्मितं, वातपित्तश्लेष्मादयो रोगास्त जनिता ज्वारादयो व्याधयोऽतो न पौनरुक्त्यं शरीरगृहं यत एवं भूतमिदं शरीरमतो धीरा मुनयः क्षणमपि रागं स्नेहानुबंधं न कुर्वति शरीरविषय इति ॥ ८४५॥
तथा उनसे उत्पन्न हुए दुःखों को नष्ट करनेवाली है । अर्थात् रोगादि कारण हैं और दुःख आदि कार्य हैं, ऐसे कार्य-कारण रूप सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट करने में समर्थ है ऐसा अभिप्राय है ।
पुनरपि क्या किया करते हैं ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ - जिन-वचन में निश्चित बुद्धि रखनेवाले वे साधु विरतिभाव को धारण करते हैं किन्तु जिन वचनों का उल्लंघन करके वे विरुद्ध क्रिया करना नहीं चाहते हैं । || ८४४॥ श्राचारवृत्ति - सम्यक्त्व के विषयभूत पदार्थों में रुचि रखनेवाले वे धैर्यशाली साधु चारित्र का दृढ़ता से पालन करते हैं अथवा 'अपि मरणं' ऐसा पाठांतर है जिसका अर्थ यह है कि वे मरण भी स्वीकार कर लेते हैं किन्तु शास्त्र के प्रतिकूल आचरण नहीं करते हैं । अर्थात् शरीर
उत्पन्न हुई व्याधि को दूर करने के लिए जिनागम का उल्लंघन करके किंचित् मात्र भी अप्रासुक वस्तु का सेवन नहीं करते हैं, भले ही प्राण चले जावें किन्तु आगम विरुद्ध क्रिया नहीं करते हैं । इस प्रकार के शरीर के होने पर हमारे द्वारा प्रतीकार कैसे हो ? ऐसी आशंका होने पर
कहते हैं
गाथार्थ - संकड़ों व्याधियों से व्याप्त शरीररूपी घर रोगों का स्थान है । वे धीर मुनि इस शरीर में क्षत्र मात्र के लिए राग नहीं करते हैं । । ६४५ ।।
आचारवृत्ति - यह शरीर रोगों का स्थान है, सैकड़ों व्याधियों से निर्मित है । वात. पित्त, कफ आदि रोग हैं उनसे उत्पन्न हुए ज्वर व्याधि कहलाते हैं । इसलिए रोग और व्याधि इन दो शब्दों के कहने से पुनरुक्त दोष नहीं आता है। जिस कारण यह ऐसा शरीररूपी घर है इसीलिए धीर मुनि इस शरीर से स्नेह नहीं रखते हैं ।
१. वाहि
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