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________________ [ मूलाधारे स्मिन् शरीरावयवे समुत्पन्ने वेदनायामप्रतीकाररूपायां अध्यासंते सहते उपेक्षां कुर्वन्ति सुधृतयो दृढचारित्रपरि नामा: कायचिकित्सां नेच्छन्ति शरीरोत्पन्नव्याधिप्रतीकारं न समीहन्ते ज्ञानदर्शनभावनयोपेता इति ।। ८४१ ॥ ७८ ] नाप्यार्त्तध्यानं कुर्वन्तीत्यावेदयन्नाह - णय दुम्मणा ण विहला अणाउला होंति चेय सप्पुरिसा । पिडियम्मसरीरा देति उरं वाहिरोगाणं ॥ ८४२ ॥ नाऽपि दुर्मनसो विमनस्का नैव भवति, न विकला नापि हिताहितविवेकशून्याः, अनाकुलाः किंकर्तव्यता मोहरहिताः सत्पुरुषाः प्रेक्षापूर्व कारिणः, निष्प्रतीकारशरीराः शरीरविषये प्रतीकाररहिताः, ददते प्रयच्छति उरो हृदयं व्याधिरोगेभ्यः सर्वव्याधिरोगान् समुपस्थितान् धर्मोपेताः संतः सहन्ते ॥ ८४२ ॥ कि सर्वोषधं विरेचनादिकं च नेच्छति नैतत् कथमिदं इच्छंति यत आह जिणवयणमोसह मिणं विषयसुहविरेयणं अमिदभूदं । जरामरणवाहिवेयण खयकरणं सव्यदुषखाणं ॥ ६४३ ॥ जिनवचनमेवोपधमिदं विषयसुखविरेचनमिन्द्रियद्वारागतस्य सुखस्य निर्हरणं, अमृतभूतं सर्वांगसंतर्पणकारणं, जरामरणव्याधिवेदनानां क्षयकरणसमर्थं सर्वदुःखानां च क्षयकरणं, सर्वाणि ज्वरादीनि कार T उदर में पीड़ा के हो जाने पर, अथवा अन्य भी शरीर के किसी भी अवयव में वेदना हो जाने पर उसका प्रतीकार नहीं करते किन्तु उसे सहन करते हैं अर्थात् उसकी उपेक्षा कर देते हैं । वे दृढ़ चारित्रधारी साधु ज्ञान, दर्शन की भावना से सहित रहते हैं अतः शरीर में उत्पन्न हुई व्याधि का प्रतीकार नहीं चाहते हैं । मुनि उससे आर्तध्यान भी नहीं करते हैं, सो ही बताते हैं गाथार्थ - वे सज्जन साधु विमनस्क नहीं होते हैं और विकल नहीं होते हैं तथा आकुलता रहित होते हैं। शरीर की प्रतिकार क्रिया नहीं करते हैं किन्तु व्याधि और रोगों से टक्कर लेते हैं । ।। ८४२ ॥ आचारवृत्ति - वे साधु दुर्मनस्क नहीं होते हैं तथा हित-अहित के विवेक से शून्य भी नहीं होते हैं । वे अनाकुल रहते हैं अर्थात् किंकर्तव्यविमूढ़ नहीं होते हैं, 'अब मैं इस रोग का क्या इलाज करूँ ? कैसे करूँ ? कहाँ जाऊँ ?' इत्यादि प्रकार से घबराते नहीं हैं । वे साधु विवेकशील रहते हुए शरीर के रोग के प्रतीकार से रहित होत हैं । प्रत्युत सभी प्रकार की व्याधियों हो जाने पर भी धैर्यपूर्वक सहन करते हैं । क्या वे सर्व औषधि विरेचन आदि नहीं चाहते हैं अथवा कुछ चाहते भी हैं ? सो ही बताते हैं Jain Education International गाथार्थ - यह जिनवचन औषधि ही है जो कि विपयसुखों का विरेचन करती है, अमृतस्वरूप है, जरा, मरण और रोगों का तथा सर्व दुःखों का क्षय करती है | ।। ८४३ || आचारवृत्ति - यह जिन वचन ही एक औषधि है जो इन्द्रियों द्वारा प्राप्त सुखों का त्याग करानेवाली है, सर्वांग में सन्तर्पण का कारण होने से अमृतरूप है, ज्वर आदि सर्व रोगों को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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