________________
अनगार भावनाधिकारः ]
[ ८१
atri टुमशक्यं कुथितव्रणवत्, विच्छुइयं - अनित्यं शाश्वतरूपं न भवति अथवा विशौचं सर्वाशुचिद्रव्यं घटितत्वात्, थूहाय - कंठागतश्लेष्मा' अथवा नगरमध्यस्थकचव रोत्कूटसदृशं सुसाण - नासिकागूथं अथवा श्मशानसदृशं, वर्चोऽशुचि, मूत्रं प्रस्रवणमेतैर्बीभत्सं न केवलं बीभत्समनित्यं चेति । अंसूय - अश्रूणि नयनप्रच्युतोदकं पूय-पूयं पक्वव्रणक्लेदरूपं, लसियं - नयनगूथं प्रगलितलालाकुलं मुखोद्भव कुथितप्रतिस्रावाकुलमेतैः सर्वैराकुलं बीभत्सम चोक्षमदर्शनी यं सर्वाशुचिसमूहवत् श्मशानवद्वेति ॥ ८४८ ||
पुनरपि शरीरस्याशुचित्वमाह - कायममत्थुलिंगं दंतमल विचिक्कणं गलिदसेदं । किमिजंतुदोभरिदं दणियाकद्दमसरिच्छं ॥ ८४६ ॥
कायमलं मूत्रपुरीषादिकं, मस्तुलिंगं मस्तकस्थं शुक्लद्रव्यरूपं क्लेदान्तरं, दन्तमलं दन्तस्थं दुर्गन्धमल, विचिक्कणं विचिक्यं चक्षुषो मलं, गलितस्वेद प्रस्रवत्स्वेदं कृमिजंतुभिर्दोषैश्च भूतं संपूर्ण, स्येंदणियाकद्दमसरिच्छं—स्थन्दनीकर्दमसदृशं रजकवस्त्रप्रक्षालननिमित्तगर्त कुथितकर्दमसमानं, अथवा कायमलमस्तुलिंगदन्तमलैर्विचिक्यमदर्शनीयं कृमिजंतुदोषपूर्ण स्यंदनी कर्दमसदृशं शरीरमिति संबंधः ॥ ८४६ ॥
पुनरपि वृत्तद्वयेन शरीराशुचित्वमाह -
है अतः अत्यन्त अपवित्र है । तथा बीभत्स - सड़े हुए घाव के समान इसका देखना बड़ा कठिन है, 'विच्छुरित' - अनित्य है अथवा 'विशौच' सभी अपवित्र वस्तुओं से ही निर्मित है, थूत्कार-कण्ठ गत कफ अर्थात् थूक अथवा नगर के मध्य में पड़े हुए कचरे के ढेर के समान है, सुसान - नाक का मल, अथवा यह शरीर श्मशान के सदृश है, मल-मूत्र से सहित है। अश्रु - नेत्रों से गिरता हुआ जल, पीव - पके हुए फोड़े का गाड़ा खून, लसिय- आँख का कीचड़, लाला - मुख से उत्पन्न हुई लार, इन सभी पदार्थों से भरा हुआ होने से यह शरीर अत्यन्त वृणित है । इतना ही नहीं, यह अनित्य भी है तथा देखते याग्य भी नहीं है क्योंकि यह सम्पूर्ण अशुचि पदार्थों के समूह के समान है अथवा श्मशान भूमि के समान है ।
पुनरपि शरीर की अपवित्रता को बताते हैं
गाथार्थ - काय का मल, सिर का मल, दाँत का मल, चक्षु का मल, झरता हुआ पसोना - इनसे युक्त, कृमि जन्तुओं से भरित, गड्ढे को कीचड़ के समान यह शरीर है ।। ८४६ ।। श्राचारवृत्ति- - कायम - विष्ठामूत्र आदि, मस्तुलिंग - सिर में स्थित सफेद द्रव्य
रूप शुष्क पदार्थ (खोसा), दन्तमल - दांतों का दुगवित मेल, विचिक्य - आँख का मंल, गलितस्वेद - शरीर से निकलनेवाला पसाना, ऐस अपवित्र पदार्थ उस शरार में हैं । यह कृमियों से ओर छोटे-छोटे जन्तुओं से भरा हुआ है। धोत्रा वस्त्र का वाता है उसका जल जिस गड्ढे में संचित होकर सड़ता रहता है उस गड्ढ को सड़ा हुई कीचड़ के सदृश यह शरीर है ।
पुनरपि दो छन्दों से शरीर की अशुचिता का वर्णन करते हैं
ऋ० कण्ठादागत श्लेष्मा क० कृमिजन्तुपूर्ण
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org