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________________ ७६] [ मूलाचारे रागस्वरूपाः, करणं त्रयोदशविधं चरणं चारित्र प्रयोदशविधं ताभ्यां संवतमंग येषां ते करचरणसंवतांगो अत्र प्राकृते णकारस्याभावः कृतः । अथवा करी हस्तौ चरणौ पादौ तैः संवतमंग तेऽवयवप्रावरणा यत्र तत्र निक्षेपणमुक्ताश्च, ध्यानोद्यता भवंतीति ।।८३७।। "उज्झनशुद्धि निरूपयन्नाह ते छिण्णणेहबंधा णिण्णेहा अप्पणो सरीरम्मि । ण 'करंति किचि साहू परिसंठप्पं सरीरम्मि ॥८३८॥ उज्झनशुद्धिर्नाम शरीरसंस्कारपरित्यागो वंध्वादिपरिहारो वा सर्वसंगविनिमुक्तिर्वा रागाभावो वा तत्र बंधुविषये च रागाभावं तावदाचष्टे इति ते मुनयः छिन्नस्नेहबंधा: पूत्रकलत्रादिविषये स्नेहहीना:,न केवलमन्यत्र कित्वात्मीयशरीरेऽपि निःस्नेहा यतः स्वशरीरे किचिदपि संस्कारं स्नानादिकं न कुर्वति साधव इति ॥५३८॥ संस्कारस्वरूपभेदनिरूपणायाह मुहणयणदंतधोवणमुव्वट्टण पादधोयणं चेव । संवाहण परिमद्दण सरीरसंठावणं सव्वं ॥८३९॥ सर्व द्रव्यों के स्वरूप को जानने वाले हैं अथवा राग के स्वरूप को जिन्होंने जान लिया है, करणतेरह प्रकार की क्रिया और चरण-तेरह प्रकार का चारित्र इनसे जिन्होंने अपने अंग को संवृतसंयुक्त कर लिया है; यहाँ पर प्राकृत में 'णकार' का लोप हो गया है अर्थात् गाथा में 'करचरणसंवडंगा' पाठ है जिसको 'करणचरणसंवुडंगा' मानने से 'करण' के णकार का लोप हो गया है ऐसा समझकर उपर्युक्त अर्थ किया गया है । अथवा कर-हस्त, चरण-पाद, इन हस्त-पादों से जिन्होंने अपने अंग-शरोर को संवृत-संकुचित कर लिया है अर्थात अपने हाथ-पैर आदि अवयवों को जहाँ-तहाँ क्षेपण नहीं करते हैं, उन्हें नियन्त्रित रखते हैं तथा जो हमेशा ध्यान में उद्युक्त रहते हैं ऐसे महामुनि होत हैं । यहाँ तक ज्ञानशुद्धि को कहा है। उज्झन शुद्धि का निरूपण करते हैं गाथार्थ-स्नेहबन्ध का भेदन करनेवाले, अपने शरीर में भी ममता रहित वे साधु शरीर का किंचित् संस्कार नहीं करते हैं । ॥८३८।। आचारवृत्ति-शरीर-संस्कार का त्याग या बन्धु आदि का त्याग, या सर्व संग का त्याग अथवा राग का अभाव इसका नाम उज्झनशुद्धि है। यहाँ पर बन्धुबांधव के विषय में राग का अभाव और शरीर के विषय में राग का अभाव इन दो को कहते हैं-वे मुनि पुत्र, कलत्र आदि सम्बन्धियों में स्नेह रहित रहते हैं, केवल इतना ही नहीं अपितु वे अपने शरीर में भी स्नेह रहित होते हैं। इसीलिए वे अपने शरीर का कुछ भी संस्कार-स्नान आदि नहीं करते हैं। संस्कार के स्वरूप और भेदों को कहते हैं गाथार्थ-मुख, नेत्र और दांतों का धोना, उबटन लगाना, पैर धोना, अंग दबवाना, मालिश कराना—ये सभी शरीरसंस्कार हैं। - १. क० ज्ञानशुद्धि निरूप्य २. क० करिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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