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________________ अनगारभावनाधिकारः] [७५ विपुलबुद्धयः महामतयः अथवा ऋजुमतयो बिपुलमतयश्च मनःपर्ययज्ञानिन इत्यर्थः । निपुणार्थशास्त्रकुशला निरवशेषार्थकुशलाः सिद्धांतव्याकरणतर्कसाहित्यछन्दःशास्त्रादिकुशलाः, परमपदस्य विज्ञायका मुक्तिस्वरूपाव- . बोधनपराः श्रमणा मुनय इति ॥८३५॥ ज्ञानमदनिराकरणायाह अवगदमाणत्थंभा अणुस्सिदा अगविदा प्रचंडा य । दंता मद्दवजुत्ता समयविदण्हू विणीदा य ॥८३६॥ उवलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहिद मुणिदपज्जाला। करचरणसंवुडंगा झाणुवजुत्ता मुणी होति ॥८३७॥ अपगतमानस्तंभा 'ज्ञानगर्वेण मुक्तास्तथाऽगर्विता जात्यादिमदरहिताः, अनुत्सृता अनुत्सुका वा कापोतलेश्यारहिताः, अचंडाश्च क्रोधरहिताः, दांता इंद्रियजयसमेताः, मार्दवयुक्ताः, स्वसमयपरसमयविदः, विनीताश्च पंचविधविनयसंयुक्ता इति ॥३६॥ तथा उपलब्धपूण्यपापाः पुण्यप्रकृतीनां पापप्रकृतीनां स्वरूपस्य वेदितारस्तथा पुण्यफलस्य पापफलस्य च ज्ञातारः, जिनशासनगहीता जिनशासने स्थिता इत्यर्थः, मुणिदपज्जाला-ज्ञाताशेषद्रव्यस्वरूपा अथवा विज्ञात से पुरन्दर ये तीनों नाम अलग-अलग कहे जाते हैं ऐसा ग्रहण करनेवाला समभिरूढ़ नय है। उस क्रिया से परिणत काल में ही इत्थंभूत नय होता है जैसे क्रिया करते हुए को कारक कहना। _इन सात नयों में प्रारम्भ के चार नय-नैगम, संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र ये अर्थनय हैं और शेष--शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत शब्दनय हैं। तथा पूर्व के तीन द्रव्यनय हैं, शेष चार पर्यायनय हैं। इन हेतु और नयों में जो विशारद–निपुण हैं वे मुनि हेतुनयविशारद कहलाते हैं। ज्ञान मद का निकारण करने के लिए कहते हैं गाथार्थ-मानरूपी स्तम्भ से रहित, उत्सुकता रहित, गर्व रहित, क्रोध रहित, इन्द्रियजित्, मार्दव सहित, आगम के ज्ञानी, विनयगुण सहित, पुण्य-पाप के ज्ञाता, जिनशासन को स्वीकार करनेवाले, द्रव्य के स्वरूप को जाननेवाले, हाथ-पैर तथा शरीर को नियन्त्रित रखने वाले, ध्यान से उपयुक्त ऐसे मुनि होते हैं ।।८३६, ८३७॥ आचारवत्ति-जो ज्ञान के गर्व से रहित हैं, तथा जाति आदि के मद से रहित हैं (यहाँ मान रहित से ज्ञानगर्व रहित और अगवित से जाति गर्व से रहित ऐसा लिया गया है), जो उत्सुकता-उतावलीपन से रहित हैं अथवा कापोतलेश्या से रहित हैं, क्रोध रहित हैं, इन्द्रियों को जीतनेवाले हैं, मार्दव गुण से युक्त हैं, स्वसमय-स्वसिद्धान्त और परसमय-पर सिद्धान्त के ज्ञाता हैं, अथवा स्वसमय-आत्मस्वरूप और परसमय-कर्म या पुद्गल के स्वरूप के ज्ञाता हैं, पाँच प्रकार की विनय से संयुक्त हैं, पुण्य प्रकृतियों के और पापप्रकृतियों के स्वरूप को जाननेवाले हैं अथवा पुण्यफल और पापफल के जानकार हैं, जिनशासन में स्थित हैं, जो १. क० मानगर्वेण । २. क० जिनशासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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