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________________ [ मूलाचारे पपत्तिरज्ञातश्चासिद्धः, तद्विशेषोऽकिंचित्करः, अन्यथोपपन्नो विरुद्धः, अन्यथाप्युपपन्नोऽनकांतिकः । श्रतनिरूपितैकदेशाध्यवसायो नयः सप्तप्रकारो नैगमादिभेदेन, तत्र सामान्यविशेषादिपरस्परापेक्षानेकात्मकवस्तूनिगमनकुशलो नैगमः, यदस्ति न तद्वयमतिलंध्य वर्तत इति । स्व'जात्याविरोधेन नकट्यमुपनीय पर्यायानाक्रान्तभेदान् समस्तसंग्रहणात्संग्रहः, यथा सर्वमेकं सदविशेषादिति । संग्रहनयाक्षिप्तानां पदार्थानां विधिपूर्वकं व्यवहरणं व्यवहारः, यथा पृथिव्यादयोऽनेकधा व्यवस्थितास्तत्त्वं तत्र संव्यवहारदर्शनादिति । अतीतानागतकोटिविनिर्मक्त वस्तु समयमात्र ऋजु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः, यथा विश्व क्षणिक सत्वादिति। यथार्थप्रयोगसंशब्दनाच्छब्दोर्थभेवकृत-कालकारकलिंगानां भेदादिति । प्रत्यर्थमेकैकसंज्ञाभिरोहणादिन्द्रशऋपुरन्दरपर्यायशब्दभेदनात्समभिरुट इति । तत्क्रियापरिणामकाल एव तदित्थंभूतो यथा कुर्वत एव कारकत्वमिति। चत्वारोऽर्थनयास्त्रयः शब्दनयाः, पूर्वे त्रयो द्रव्यनयाः शेषाः पर्यायनया इत्येवंभूते हेतो नये च विशारदा निपुणा हेतुनयविशारदाः । अन्य प्रकार से भी उपपन्न है अर्थात् साध्य में नहीं रहता है किन्तु उससे उल्टे में रहता है वह विरुद्ध है; जैसे शब्द अपरिणामी है क्योंकि वह कृतक है। अन्य में भी रहनेवाला हेतु अनेकान्तिक है अर्थात् जो हेतु पक्ष-सपक्ष दोनों में रहते हुए विपक्ष में भी चला जाय वह अनेकान्तिक है; जैसे शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है; जैसे घट । यहाँ यह प्रमेयत्व हेतु अनित्य शब्द में व घट में रहते हुए नित्य आकाश में भी चला जाता है क्योंकि आकाश भी प्रमेय है। श्रुत के द्वारा निरूपित वस्तु के एक अंश का निश्चय करानेवाला ज्ञान नय कहलाता है। उसके सात भेद हैं-नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । सामान्यविशेष आदि धर्मों से परस्पर में अपेक्षा सहित ऐसी अनेकान्तात्मक वस्तु में निगमन-संकल्पमात्र को ग्रहण करने में कुशल जो नय है वह नैगमनय है, चूंकि जो सामान्य और विशेष धर्म हैं वे परस्पर में एक-दूसरे का उल्लंघन करके नहीं रहते हैं। अनेक भेदों से सहित पर्यायों में स्व जाति अविरोध से समीपता को करके अर्थात् एकत्व का अध्यारोप करके समस्त को ग्रहण करना संग्रहनय है । जैसे सभी जगत एक है क्योंकि सत सामान्य की अपेक्षा से उसमें भेद नहीं है। संग्रहनय से ग्रहण किए गए पदार्थों में विधिपूर्वक भेद करना व्यवहारनय है। जैसे तत्त्व पृथ्वी आदि अनेक प्रकार से व्यवस्थित हैं क्योंकि उनमें सम्यक् 'भेद देखा जाता है । अर्थात् जैसे संग्रह नय से सभी पदार्थों को सत रूप से एक कहा है तो उसमें उस सत के चेतन-अचेतन की अपेक्षा दो भेद हो जाते हैं। जब सर्व जीवराशि को जीवत्व की अपेक्षा से संग्रहनय एक रूप कहता है तब व्यवहार से उसमें संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद हो जाते हैं इत्यादि । भूत और भविष्यत की पर्यायों से रहित वस्तु की वर्तमान काल सम्बन्धी एक समय मात्र की ऋजु-सरल पर्याय को सूचित करनेवाला ऋजुसूत्र नय है। जैसे विश्व-सर्ववस्तु क्षणिक हैं क्योंकि सत रूप हैं। यथार्थ प्रयोग को सम्यक् प्रकार से सूचित करके अर्थ में भेद करनेवाला शब्द नय है क्योंकि काल, कारक और लिंग में भेद देखा जाता है। अर्थात् काल, कारक, लिंग और उपसर्ग के भेद से अर्थ में भेद बतानेवाला शब्द नय है । प्रत्येक अर्थ के प्रति एक-एक संज्ञा को स्वीकार करनेवाला समभिरूढ नय है । जैसे इन्द्र, शक और पुरन्दर शचीपति के इन पर्यायवाची नामों से उनमें भेद हो जाता है । अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र, समर्थ होने से शक्र और पुरों का विभाजन करने १. क. स्वजात्यविरोधेनकटयमुपनीय. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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