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________________ [ मूलाचारे ते मुनयो लब्धज्ञानचक्षुषो ज्ञानोद्योतेन दृष्टपरमार्था मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं मन:पर्ययावधिज्ञानमुद्योतस्तेन ज्ञातसर्वलोकसारा, शंकाया श्रुतज्ञानादिनिरूपितपदार्थविषयसंदेहान्निर्गता निःशंका, विचिकित्साया निर्गतानिविचिकित्सा आत्मबलानुरूपः पराक्रमो येषां ते आत्मबल पराक्रमा यथाशक्त्युत्साहरुमन्विताः साधव इति ॥ ८३०॥ ७० 1 पुनरपि किविशिष्टा इत्याशंकायामाह - तथा- प्रणुद्धतवोकम्मा खवणवसगदा तवेण तणुश्रंगा | ate गुणगंभीरा अभग्गजोगा य दिढचरित्ता य ॥ ८३१॥ आली गंडमंसा पायडभिउडीमुहा अधियदच्छा। सवणा तवं चरंता उक्किण्णा धम्मलच्छीए ॥ ८३२|| अनुबद्धं संततं तपःकर्म तपोऽनुष्ठानं येषां तेऽनुबद्धतपःकर्माणो द्वादशविधे तपस्युद्यताः, क्षमणवशंगताः, तपसा तनुशरीराः धीराः, गुणगंभीरा गुणसंपूर्णाः, अभग्नयोगाः दृढचरित्राश्च ॥ ५३१ ॥ आलीनगंडमांसाः क्षीणकपोलाः प्रकटभृकुटिमुखा अधिकाक्षास्तारकामात्रनयनाश्चर्मास्थिशेषाः श्रमणास्तपश्चरंत एवंभूता अपि संयुक्ता धर्मलक्ष्म्या ज्ञानभावनयोपेता यतो' न ज्ञानमात्रात्सिद्धिरिति ॥ ८३२ || आचारवृत्ति - जिनको ज्ञानरूपी नेत्र प्राप्त हो चुका है, जिन्होंने मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान के उद्योत से जगत् के सार-स्थिति को जान लिया है, जो श्रुत ज्ञान आदि से निरूपित पदार्थों के विषय में सन्देह रहित होने से निःशंक हैं एवं विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि से रहित होने से निर्विचिकित्सा सहित हैं वे अपने बल के अनुरूप पराक्रम से युक्त हैं अर्थात् वे साधु यथाशक्ति उत्साह से समन्वित हैं । पुनः वे किन विशेषताओं से सहित हैं सो ही बताते हैं गाथार्थ - जो तप करने में तत्पर हैं, उपवास के वशीभूत हैं, तप से कुंशशरीरी हैं, धीर हैं, गुणों से गम्भीर हैं, योग का भंग नहीं करते हैं और दृढ़चारित्रधारी हैं । तथा Jain Education International जिनके कपोल का मांस सूख गया है, भ्रकुटी और मुख प्रकट हैं, आँख के तारे चमक रहे हैं, ऐसे श्रमण तपश्चर्या करते हुए धर्मलक्ष्मी से संयुक्त हैं । । ८३१, ८३२॥ आचारवृत्ति - जो सतत बारह प्रकार के तप के अनुष्ठान में तत्पर हैं, उपवास में लगे हुए हैं, तपश्चरण से जिनका शरीर क्षीण हो चुका है, धीर हैं, गुणों से परिपूर्ण हैं, आताप योगों का कभी भंग नहीं करते हैं, चारित्र में दृढ़ हैं; जिनके कपोल क्षीण हो गए हैं, जिनकी भ्रकुटियाँ प्रकट दिख रही हैं, जिनकी आँखें अन्दर घुस गई हैं मात्र पुतलियाँ चमक रही हैं, जिनके शरीर चर्म और अस्थि ही शेष रह गयी हैं, इस प्रकार से तपश्चरण करते हुए भी वे श्रमण ज्ञान भावना से सहित रहते हैं । चूंकि ज्ञानमात्र से सिद्धि नहीं होती है अर्थात् ज्ञानमात्र से ही मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है अतः कर्मों नाश करने के लिए वे महामुनि घोर तपश्चरण करते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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