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________________ अनगारभावनाधिकारः ] [७१ कथं ज्ञानभावनया संपन्ना इत्याशंकायामाह आगमकदविण्णाणा अटुंगविदू य बुद्धिसंपण्णा । अंगाणि दस य दोण्णि य चोद्दस य धरंति पुव्वाइं॥८३३॥ न केवलं भिक्षादिशुद्धौ रताः किं तु ज्ञानशुद्धावपि रता यतः आगमेन कृतं विज्ञानं यस्ते आगमकृतविज्ञानाः श्रुतशानदृष्टपरमार्थाः, अष्टांगविदोंऽगव्यंजनादिनिमित्तकुशलाश्वतुर्विधबुद्धिसंपन्नाश्च । कथमागमकृतविज्ञाना इति चेदंगानि दश द्वे चाचारसूत्रकृतस्थानसमवायव्याख्याप्रज्ञप्तिज्ञातृकथोपासकाध्ययनांतःकृद्दशानुतरदशप्रश्नव्याकरणविपाकसूत्रदृष्टिवादसंज्ञकानि द्वादशांगानि धारयंति तथा दृष्टिवादोद्भूतचतुर्दशपूर्वाण्युत्पादाग्रायणीवीर्यानुप्रवादास्तिनास्तिप्रवादज्ञानप्रवादसत्यप्रवादात्मप्रवादकर्मप्रवादप्रत्याख्यानप्रवादविद्यानुप्रवादकल्याणप्राणवायक्रियाविशाललोकबिन्दुसारसंज्ञकानि धरति जानंति यतोऽत आगमकृतविज्ञाना इति ॥८३३॥ न केवलं तानि पठति शृण्वंति, किंतु धारणगहणसमत्था पदाणुसारीय बीयबुद्धीय। संभिण्णकोटबुद्धी सुयसायरपारया धीरा ॥८३४॥ किस प्रकार से वे साधु ज्ञान भावना से सम्पन्न हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ—आगम के ज्ञानी, अष्टांग निमित्त के वेत्ता, बुद्धि ऋद्धि से सम्पन्न वे मुनि बारह अंग और चौदह पूर्वो को धारण करते हैं । ॥८३३॥ भाचारवृत्ति-वे साधु केवल भिक्षा-शुद्धि आदि में ही रत हों, ऐसी बात नहीं है। किन्तु ज्ञानशुद्धि में भी रत हैं, क्योंकि वे श्रुतज्ञान से परमार्थ को देखने वाले हैं; अंग, व्यंजन, स्वर आदि निमित्त में कुशल हैं, एवं चार प्रकार को बुद्धि-ऋद्धि से भो सम्पन्न हैं । अर्थात् आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतः कृदशांग, अनुत्तरदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये बारह अंग हैं । तथा दृष्टिवाद नामक अन्तिम अंग से उत्पन्न हुए चोदह पूर्व हैं जिनके उत्पादपूर्व, अग्रायणी निप्रवादपूर्व, अस्तिनास्तित्रवादपर्व, ज्ञानप्रवादपर्व, सत्यप्रवाद, आत्म-प्रवादपर्व. कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व, विद्यानप्रवादपूर्व, कल्याणपूर्व, प्राणावायपर्व, क्रियाविशालपूर्व और लोकविंदुसारपूर्व नाम हैं। इन बारह अंग और चौदह पूर्वो को वे जानते हैं इसलिए वे आगम कृत विज्ञान से सहित हैं। ____ भावार्थ-कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारि बुद्धि और संभिन्न श्रोत इन चार ऋद्धियों को बुद्धि ऋद्धि कहते हैं। वे केवल इन अंगपूर्वो को पढ़ते और सुनते ही हों, ऐसा नहीं है; किन्तु गाथार्थ-जो धारण और ग्रहण करने में समर्थ हैं, पदानुसारी, बीजबुद्धि, संभिन्न श्रोतृ बुद्धि और कोष्ठबुद्धि ऋद्धिवाले हैं, श्रुतसमुद्र के पारंगत हैं वे धीर, गुण सम्पन्न साधु हैं । ॥८३४॥ १. विशेष उच्यते स्वभावबुद्ध्यधिकास्तेषाम् इति क प्रतो अधिकः पाठः । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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