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ममगारभावनाधिकारः] यदशनीयं तदाह
जं हवदि अणिवीयं णिवट्टिम फासुयं कयं चेव।
पाऊण एसणीयं तं भिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥२८॥ यद्भवत्यबीजं निर्बीजं, निर्वत्तिमं निर्गतमध्यसारं, प्रासुकं कृतं चैव ज्ञात्वाऽशनीयं तद्भक्ष्यं मुनयः प्रतीच्छंतीति ।।८२८॥ भुक्त्वा किं कुर्वतीत्याशंकायामाह
भोत्त ण गोयरग्गे तहेव मुणिणो पुणो वि पडिकता।
परिमिदएयाहारा खमणेण पुणो वि पारेति ॥२६॥ __ गोचराने भुक्त्वा भिक्षाचर्यामार्गे भुक्त्वा तथापि मुनयः पुनरपि प्रतिक्रामंति दोषनिर्हरणाय क्रियाकलापं कुर्वन्ते, यद्यपि कृतकारितानुमतिरहिता भिक्षा लब्धा तथापि तदर्थं वा शुद्धि कुर्वन्त्यतीव यतयः, परिमितैकाहाराः परिमित 'एक एकवेलायामाहारो येषां ते परिमितैकाहाराः क्षमणेनोपवासेनकस्थानेन वा पुनरपि पारयंति भुंजते इति ॥२६॥ ज्ञानशुचि निरूपयन्नाह
ते लक्षणाणचक्खू णाणुज्जोएण दिट्ठपरमट्ठा।
हिस्संकिवणिव्यिविगिछादबलपरक्कमा साहू ॥३०॥ जा खाने योग्य हैं उनको बताते हैं
गाथार्थ-जो बीज रहित है, पकाया हुआ है या प्रासुक किया हुआ है वह खाने योग्य है ऐसा जानकर उसको आहार में मुनि ग्रहण करते हैं । ॥२८॥
आचारवृत्ति-जिसमें से बीज को निकाल दिया है, जिनको पका दिया गया है या जिनके मध्य का सार अंश निकल गया है, जो प्रासुक हैं वे पदार्थ भक्ष्य हैं, उन्हें ही मुनि आहार में ग्रहण करते हैं।
आहार करके क्या करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
गाथार्थ-उसी प्रकार से गोचरी बेला में आहार करके वे मुनि पुनः प्रतिक्रमण करके परिमित एक आहारी उपवास करके पुनः पारणा करते हैं। ॥२६॥
आचारवत्ति-गोचरीवृत्ति से चर्या करके वे मुनि आहार ग्रहण करते हैं, पुनः आकर प्रतिक्रमण करते हैं, अर्थात् दोष-परिहार के लिए क्रिया-कलाप करते हैं। यद्यपि कृत कारित अनुमोदना से रहित आहार मिला है फिर भी उसके लिए वे यति अतीव शुद्धि करते हैं। वे दिन में एक बार ही आहार लेने से परिमित एक आहारो हैं। पुनः उपवास करके अथबा एकस्थान से पारणा करते हैं। यह भिक्षा-शुद्धि हुई।
__ अब ज्ञान-शुद्धि का निरूपण करते हैं
गाथार्थ-वे ज्ञानचक्षु को प्राप्त हुए साधु ज्ञान-प्रकाश के द्वारा परमार्थ को देखने वाले निःशंकित निविचिकित्सा और आत्मबल पराक्रम से सहित होते हैं । ॥८३०॥ १. द प्रतो नास्ति।
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