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________________ ६८ ] यत्सर्वं यत्किचिदप्रासुकं तददीनमनसो वर्जयंति परिहरतीति ।। ८२५॥ एवम्भूतं तु गृह्णातीत्याह जं सुद्धमसंसत्त खज्जं भोज्जं च लेज्ज पेज्जं वा । गिति मुणी भिक्वं सुत्तेण श्रणिवयं जं तु ॥ ८२६॥ यच्छुद्धं विवर्णादिरूपं न भवति, जंतुभिः संसृष्टं च न भवति । खायं भोज्यं लेां पेयं च सूत्रेणा निन्दितं तद्भैक्ष्यं मुनयो गृह्णतीति ॥ ६२६ ॥ आमपरिहारायाह फलकंदमूलबीयं अणग्गिपक्कं तु आमयं किंचि । णच्चा अणेसणीयं ण वि य पडिच्छंति ते धीरा ॥८२७॥ [ मूलाचारे फलानि कंदमूलानि बीजानि चाग्निपक्वानि न भवंति यानि अन्यदप्यामकं यत्किचित्तदनशनीय ज्ञात्वा नैव प्रतीच्छन्ति नाभ्युपगच्छन्ति ते धीरा इति ॥ ६२७॥ हो गये हैं, बिगड़ गये हैं, ऐसे पुआ, पापड़ पदार्थ हैं, और भी जो अप्रासुक पदार्थ हैं, वे सब त्याग करने योग्य हैं। मुनि अदीनमन होते हुए इन सबको छोड़ देते हैं । जिस तरह के पदार्थ ग्रहण करते हैं उनको बताते हैं गाथार्थ - जो शुद्ध है, जीवों से सम्बद्ध नहीं है, और जो आगम से वर्जित नहीं है ऐसे खाद्य, भोज्य, लेह्य और पेय को मुनि आहार में लेते हैं । ।। ८२६ ।। श्राचारवृत्ति - जो विवर्ण चलित आदि रूप नहीं हुआ है, जो जन्तुओं से सम्मिश्र नहीं है और जो भोजन आगम से निंदित नहीं है ऐसे खाद्य, भोज्य, लेह्य और पेय रूप चार प्रकार के आहार को मुनि ग्रहण करते हैं । सचित्त वस्तु का परिहार करने के लिए कहते हैं गाथार्थ - अग्नि से नहीं पके हुए फल, कन्द, मूल और बीज तथा और भी कच्चे पदार्थ जो खाने योग्य नहीं है ऐसा जानकर वे धीर मुनि उनको स्वीकार नहीं करते हैं | || ८२७॥ आचारवृत्ति- - फल, कन्द, मूल और बीज जो अग्नि से नहीं पकाये गए हैं, तथा और भी जो कुछ कच्चे पदार्थ हैं वे खाने योग्य नहीं हैं, उन्हें जानकर वे मुनि उनको ग्रहण नहीं करते हैं । भावार्थ- सचित्त वस्तु को प्रासुक करने के दश प्रकार भी बताये गये हैं । यथा सुक्कं पक्कं तत्त अंविल लवणेण मिस्सियं दव्वं । जं जंतेण य छिण्णं तं सव्वं फासूयं भणियं ॥ अर्थ - जो द्रव्य सूखा हो, पका हो, तप्त हो, आम्लरस तथा लवणमिश्रित हो, कोल्हू, चरखी, चक्की, छुरी, चाकू आदि यन्त्रों से भिन्न-भिन्न किया हुआ तथा संशोधित हो, सो सब प्रासुक है । Jain Education International १. यह गाथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा की संस्कृत टीका में तथा केशववणिकृत गोस्मटसार की संस्कृत टीका में भी सत्यवचन के भेदों में कही गई है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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