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________________ ३६] [मूलाचारे वियतियच उक्कमासे-द्वौ च त्रयश्च चत्वारश्च द्वित्रिचत्वारस्ते च ते मासाश्च द्वित्रिचतुर्मासास्तेषु द्वित्रिचतुर्मासेषु, मासशब्द: प्रत्येक अभिसम्बध्यते द्वयोर्मासयोः, त्रिषु मासेषु चतुर्ष मासेषु वा सम्पूर्णेषु असंपूर्णेषु वा । द्वयोर्मासयोरतिक्रान्तयोः सतोर्वा । त्रिषु मासेषु अतिक्रान्तेष्वनतिकान्तेषु सत्सु वा। चतुर्यु मासेषु पूर्णेष्वपूर्णेषु वा नाधिकेषु इत्याध्याहारः कार्यः सर्वसुत्राणां सोपस्कारत्वादिति । लोचो-लोचः बालोत्पाटनं हस्तेन मस्तककेशश्मश्रूणामपनयनं जीवसम्मुर्छनादिपरिहारार्थ रागादिनिराकरणार्थ स्ववीर्यप्रकटनाथ सर्वोत्कृष्टतपश्चरणार्थ लिंगादिगुणज्ञापनार्थं चेति । उक्कस्स-उत्कृष्टः, अत्यर्थमाचरणार्थाभिप्रायः । मज्झिम-मध्यमः अजघन्योत्कृष्टः । जहण्ण--जघन्यः मन्दाचरणाभिप्रायः । सपडिक्कमणे-सप्रतिक्रमणे सह प्रतिक्रमणेन वर्तते इति सप्रतिक्रमणस्तस्मिन्सप्रतिक्रमणे । दिवसे-अहोरात्रमध्ये। उववासेण-उपवासेन अशनादिपरित्यागयुक्तेन । एवकारोऽवधारणार्थः । कायव्वो-कर्तव्यः निर्वर्तनीयः । लोचस्य निरुक्ति!क्ता सर्वस्य प्रसिद्धो यतः। सप्रतिक्रमणे दिवसे पाक्षिकचातुर्मासिकादौ उपवासेनैव द्वयोर्मासयोर्यत् केशश्मश्रूत्पाटनं स उत्कृष्टो लोचः । त्रिसु मासेषु मध्यमः, चतुषु मासेषु जघन्यः । अथवा विधानमेतत्, एतेषु कालविशेषेषु एवंविशिष्टो लोचः कर्तव्यः । एवकारेणोपवासे लोचोऽवधार्यते न दिवसः, तेन प्रतिक्रमणरहितेऽपि दिवसे लोचस्य सम्भवः । अथवा सप्रतिक्रमणे दिवसे इत्यनेन किमुक्तं भवति लोचं कृत्वा प्रतिक्रमणं कर्तव्यमिति । 'लुंचधातुरपनयने वर्तते तच्चापनयनं क्षुरादिनापि सम्भवति तत्किमर्थमुत्पाटनं मस्तके केशानां श्मश्रूणां चेति प्राचारवृत्ति-दो मास के उल्लंघन हो जाने पर अथवा पूर्ण होने पर, तीन मास के उल्लंघन के हो जाने पर अथवा कमती रहने पर या पूर्ण हो जाने पर एवं चार मास के पूर्ण हो जाने पर अथवा अपूर्ण रहने पर किन्तु अधिक नहीं होने पर लोच किया जाता है ऐसा अध्याहार करके अर्थ किया जाना चाहिए क्योंकि सभी सूत्र उपस्कार सहित होते हैं अर्थात् सूत्रों में आगम से अविरुद्ध वाक्यों को लगाकर अर्थ किया जाता है क्योंकि सूत्र अतीव अल्प अक्षरवाले होते हैं । संमूर्च्छन आदि जीवों के परिहार के लिए अर्थात् जू आदि उत्पन्न न हो जावें इसलिए, शरीर से रागभाव आदि को दूर करने के लिए, अपनी शक्ति को प्रकट करने के लिए, सर्वोत्कृष्ट तपश्चरण के लिए और लिंग-निग्रंथ मुद्रा आदि के गुणों को बतलाने के लिए हाथ से मस्तक तथा मूंछ के केशों का उखाड़ना लोच कहलाता है । यह लोच पाक्षिक चातुमासिक आदि प्रतिक्रमणों के दिन उपवासपूर्वक ही करना चाहिए। दो महीने में किया गया लोच अतिशय रूप आचरण को सूचित करने वाला होने से उत्कृष्ट कहलाता है, तीन महीने में किया गया मध्यम है और चार महीने में किया गया मन्द आचरण रूप जघन्य है। इस प्रकार से प्रतिक्रमण सहित दिनों में उपवास करके लोच करना यह विधान हुआ है अथवा गाथा में एवकार शब्द उपवास शब्द के साथ है जिससे उपवास में ही लोच करना चाहिए ऐसा अवधारण होता है, इससे प्रतिक्रमण से रहित भी दिवसों में लोच संभव है। अथवा प्रतिक्रमण सहित दिवस का यह अर्थ समझना कि लोच करके प्रतिक्रमण करना चाहिए। प्रश्न-लुंच धातु अपनयन दूर करने अर्थ में है। वह केशों को दूर करना रूप अर्थ तो क्षुरा-उस्तरा कैंची आदि से भी सम्भव है तो फिर मस्तक और मूंछों के केशों को हाथ से क्यों उखाड़ना ? १ लुचूद। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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