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________________ मूलगुणाधिकारः । कायोत्सर्गस्वरूपनिरूपणार्थमाह देव स्यणियमादिसु जहुत्तमाणेण 'उत्तकालम्हि । fury चतणत्तो काउस्सग्गो' तणुविसग्गो ॥ २८ ॥ देवसिय नियमादिसु — दिवसे भवो दैवसिकः स आदिर्येषां ते दैवसिकादयस्तेषु दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिक सांवत्सरिकादिषु नियमेषु निश्चयक्रियासु । जहुत्तमाणेण - उक्तमनतिक्रम्य यथोक्तं यथोक्तं च तन्मानं च यथोक्तमानं तेन अर्हत्प्रणीतेन' कालप्रमाणेन पंचविंशतिसप्तविंशत्यष्टोत्तरशताद्युच्छ्वासपरिमाणेन । उत्तकालम्हि—उक्तः प्रतिपादितः कालः समय उक्तकालस्तस्मिन्नुक्तकाले आत्मीयात्मीयवेलायां । यो यस्मिन् काले कायोत्सर्ग उक्तः स तस्मिन् कर्तव्यः । जिणगुणचतणजुत्तो - जिनस्य गुणा जिनगुणास्तेषां चिन्तनं स्मरणं तेन युक्तो निगुर्णाच तनयुक्तः, दयाक्षमासम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रशुक्लध्यानधर्मध्यानानन्तज्ञानादिचतुष्टयादिगुणभावनासहितः । का उस्सग्गो - कायोत्सर्गः । तणुविसग्गो - तनोः शरीरस्य विसर्गस्तनुविसर्गो देहे ममत्वस्यः परित्यागः । दैवसिकादिषु नियमेषु यथोक्तकाले योऽयं यथोक्तमानेन जिनगुणचिन्तनयुक्तस्तनुविसर्गः स कायोत्सर्ग इति ।। लोच उक्तः स कथं क्रियते इत्यत आह वियतियचउक्कमासे लोचो उक्कस्समज्झिमजहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे उबवासेणेव कायव्वो ॥ २६ ॥ Jain Education International | K अब कायोत्सर्ग का स्वरूप निरूपण करते हैं गाथार्थ -- देवसिक, रात्रिक आदि नियम क्रियाओं में आगम में कथित प्रमाण के द्वारा आगम में कथित काल में जिनेन्द्रदेव के गुणों के चिन्तवन से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का आवश्यक है ||२८|| श्राचारवृत्ति - दिवस में होने वाला दैवसिक है अर्थात् दिवस सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण देवसिक प्रतिक्रमण है । इसी तरह रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक आदि नियमरूप निश्चय क्रियाओं में अर्हन्तदेव के द्वारा कथित पच्चीस, सत्ताईस, एक सौ आठ आदि उच्छ्वास प्रमाण काल के द्वारा उन्हीं - उन्हीं क्रिया सम्बन्धी काल में जिनेन्द्रदेव गुणों के स्मरण से युक्त होकर अर्थात् दया, क्षमा, सम्यग्दर्शन -ज्ञान- चारित्र शुक्लध्यान धर्मध्यान तथा अनन्तज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय गुणों की भावना से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का परित्याग करना कायोत्सर्ग है । तात्पर्य यह है कि दैवसिक आदि नियमों में शास्त्र में कथित समयों में जो शास्त्रोक्त उच्छ्वास की गणना से णमोकार मंत्र पूर्वक जिनेन्द्रगुणों के चिन्तनसहित शरीर से ममत्व का त्याग किया जाता है उसका नाम कायोत्सर्ग है ॥ जो लोच मूलगुण कहा है वह कैसे किया जाता है ? इसके उत्तर में कहते हैंगाथार्थ -- प्रतिक्रमण सहित दिवस में, दो, तीन या चार मास में उत्तम, मध्यम या जघन्य रूप लोच उपवास पूर्वक ही करना चाहिए ||२६|| १ क वृत्त । २ काऊ द० । ३ क प्रणीत का । ४ काऊ द । ५ क ' त्वप' | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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