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________________ मूलगुणाधिकारः] [३१ वाक्कायशुद्धिभिः स्तुतेः करणं । थवो-स्तवः, चतुविशतितीर्थंकरस्तुतिः, नामैकदेशेऽपि शब्दस्य प्रवर्तनात् यथा सत्यभामा भामा, भीमो भीमसेनः । एवं चतुर्विशतिस्तवः स्तवः । यो-ज्ञातव्यः । ऋषभादिजिनवराणां नामनिरुक्ति गुणानुकीर्तनं च कृत्व। योऽयं मनोवचनकायशुद्धया प्रणामः स चतुर्विंशतिस्तव इत्यर्थः । वन्दनास्वरूपं निरूपयन्नाह अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरुगुरूण रादीणं । किदियम्मणिदरेण य तियरणसंकोचणं पणमो॥२५॥ अरहंतसिद्धपडिमा-अर्हन्तश्च सिद्धाश्चाहत्सिद्धास्तेषामर्हत्सिद्धानां प्रतिमा अर्हत्सिद्धप्रतिमा अर्हत्सिद्धप्रतिबिम्बानि स्वरूपेण चाहन्तः घातिकर्मक्षयादहन्तः, अष्टविधकर्मक्षयात्सिद्धाः । अथवा गतिवचनस्थानभेदात्तयोर्भेदः, अष्टगहाप्रातिहार्यसमन्विता अर्हत्प्रतिमा, तद्रहिता सिद्धप्रतिमा। अथवा कृत्रिमा यास्ता अर्हत्प्रतिमा:, अकृत्रिमा: सिद्धप्रतिमाः । तवसुदगुणगुरुगुरूण-तपति दहति शरीरेन्द्रियाणि तपो द्वादशप्रकारमनशनादिकं, श्रुतमंगपूर्वादिरूपं मतिपूर्वकं, गुणा व्याकरणतर्कादिज्ञानविशेषाः, तपश्च श्रुतं च गुणाश्च तप:श्रुतगुणास्तैर्गुरवो महान्तस्तपःश्रुतगुणगुरवः, गुरुश्च येन दीक्षा दत्ता, तेषां, द्वादशविधतपोधिकानां, श्रुताधि यहाँ पर अन्य श्रुतादि को नहीं सुना जाने से अर्थात् श्रुत या गुरु आदि का प्रकरण न होने से तीर्थंकरों का स्तवन ही ग्रहण किया जाना चाहिए । अर्थात् स्तव का अर्थ चौबीस तीर्थंकरों का स्तव है ऐसा समझना चाहिए । चूंकि नाम के एक देश में भी शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । जैसे भामा शब्द से सत्यभामा और भीम शब्द से भीमसेन को समझ लिया जाता है इसी प्रकार से स्तव नाम से चतुर्विशति तीर्थंकर का स्तव जानना चाहिए। तात्पर्य यह कि ऋषभ आदि जिनवरों की नाम निरुक्ति और गुणों का अनुकीर्तन करके जो मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक प्रणाम किया जाता है वह चतुर्विंशतिस्तव है अब वन्दना आवश्यक का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ--अर्हन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा; तप में श्रुत या गुणों में बड़े गुरु का और स्वगुरु का कृतिकर्म पूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के मन-वचन-कायपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है ॥२५॥ ___ प्राचारवृत्तिजिन्होंने घाति कर्मों का क्षय कर दिया है वे अर्हन्त हैं और जो आठों कर्मों का क्षय कर चुके हैं वे सिद्ध हैं । इनके प्रतिबिम्ब को प्रतिमा कहते हैं । अथवा गति, वचन और स्थान के भेद से भी अर्हन्त और सिद्ध में भेद है । अर्थात् अर्हन्त मनुष्य गति में हैं, सिद्ध चारों गतियों से परे सिद्धगति में हैं। इसी प्रकार जो अन्य जनों में नहीं पायी जानेवाली इन्द्रादि द्वारा की गयी पूजा के योग्य हैं वे अर्हन्त हैं और जो अपने स्वरूप से पूर्णतया निष्पन्न हो चुके हैं वे सिद्ध हैं । अर्हन्तों का स्थान मध्यलोक है और सिद्धों का स्थान लोकशिखर का अग्रभाग है-इनकी अपेक्षा अर्हन्त और सिद्धों में भेद है । अष्ट महाप्रतिहार्य से समन्वित अर्हन्त प्रतिमा हैं और इनसे रहित सिद्ध प्रतिमा हैं । अथवा जो कृत्रिम प्रतिमाएँ हैं वे अर्हन्त प्रतिमा हैं और जो अकृत्रिम हैं वे सिद्ध प्रतिमा हैं। जो शरीर और इन्द्रियों को तपाता है, दहन करता है, वह तप है जो कि अनशनादि के भेद से बारह प्रकार का है । अंग और पूर्व आदि श्रुत हैं। यह श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । व्याकरण, तर्क आदि के ज्ञान विशेष को गुण कहते हैं । इन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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