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________________ ३०] [मूलाचारे चतुर्विशतिस्तवस्वरूपं निरूपयन्नाह---- उसहादिजिणवराणं णामणित्ति गुणाकत्ति च। ___ काऊण अच्चिदण य तिसुद्धिपणमो थवो णेग्रो ॥२४॥ उसहादिजिगवराणं-ऋषभः प्रथमतीर्थकर आदिउँपांते ऋषभादयस्ते च ते जिनवराश्च ऋपभादिजिनवरास्तेषामृपभादिजिनवराणां वृषभादिवर्धमानपर्यन्तानां चतुर्विंशतितीर्थकराणां । णामणित्ति-नाम्नामभिधानानां निरुक्तिर्नामनिरुक्तिस्तां नामनिरुक्ति प्रकृतिप्रत्ययकालकारकादिभिनिश्चयेन अनुगतार्थकथनं ऋषभाजितसम्भवाभिनन्दनसुमतिपद्मप्रभसुपार्श्वचन्द्रप्रभपुप्पदन्तशीतलधेयोवासुपूज्यविमलानन्तधर्मशान्तिकुन्थ्वरमल्लिमुनिसुव्रतनम्यरिष्टनेमिपाववर्धमानाः नामकीर्तनमेतत् । गुणाणुकित्ति च-गुणानामसाधारणधर्माणामनुकीतिरनुख्यापनं गुणानुकीतिस्तां गुणानुकीति च निर्दोषाप्तलक्षणस्तुतिम् लोकर योद्योतकरा धर्मतीर्थकराः सुरासुरमनुष्येन्द्रस्तुताः दृष्टपरमार्थतत्त्वस्वरूपाः विमुक्तघातिकठिनकर्माणः, इत्येवमादिगुणानुकीर्तनं । काऊणकृत्वा गुणग्रहणपूर्वकं नामग्रहणं प्रकृत्य । अच्चिदूण य-'अर्चयित्वा च गन्धपुष्पधपदीपादिभिः प्रासकैरानीतैदिव्यरूपैश्च दिव्यनिराकृतमलपटलसुगन्धैश्चविंशतितीर्थकरपदयुगलानामर्चनं कृत्वान्यग्याथुतत्वात्तपामेव ग्रहणम् । तिसुद्धिपणमो-तिम्रश्च ता: शुद्धयाच विशुद्धयस्ताभिः विशुद्धिभिः प्रणामः त्रिशुद्धिप्रणामः मनो तात्पर्य यह है कि जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, संयोग-वियोग, वन्धु-शत्रु और सुखदुःख आदि प्रसंगों में जो समान परिणाम का होना है और त्रिकाल में देववन्दना करना है वह सामायिक व्रत है। चतुर्विशतिस्तव का स्वरूप निरूपित करते हैं... गाथार्थ--ऋषभ आदि तीर्थकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके उनको मन, वचन, काय पूर्वक नमस्कार करना स्तव नाम का आवश्यक जानना चाहिए ॥२४॥ आचारवृत्ति-ऋषभदेव को आदि से लेकर वर्धमान पर्यन्त चौवीस तीर्थकरों का प्रकृति, प्रत्यय, काल, कारक आदि के द्वारा निश्चय करके अनुगत--परम्परागत अर्थ करना नामनिरुक्तिपूर्वक स्तवन है। अथवा ऋपभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, अरिष्टनेमि, पार्व और वर्धमान इस प्रकार से नाम-उच्चारण करना नाम स्तवन है। इन्हीं तीर्थकरों के असाधारण धर्मरूप गुणों का वर्णन करना गुणानुकीर्तन है, अर्थात् निर्दोष आप्त का लक्षण करते हुए उनकी स्तुति करना, जैसे, हे भगवन् ! आप लोक में उद्योत करनेवाले हैं, धर्मतीर्थ के कर्ता हैं; मुर, असुर और मनुः यों के इन्द्रों से स्तुति को प्राप्त हैं, वास्तविक तत्त्व के स्वरूप को देखनेवाले हैं, और कठोर घातिया कर्मों को नष्ट कर चुके हैंइत्यादि प्रकार से अनेक-अनेक गुणों का कीर्तन करना भी गुणानुकीर्तन है। इस प्रकार इन तीर्थकरों का गुणग्रहणपूर्वक नामग्रहण करके तथा मलपटल से रहित सुगन्धित दिव्यरूप लाये गये प्रासुक गन्ध पुष्प धूप-दीप आदि के द्वारा चौवीस तीर्थकरों के पद-युगलों की अर्चना करके मन, वचन, काय को शुद्धिपूर्वक उनको प्रणाम करना-स्तवन करना स्तव आवश्यक है। १क अचित्वा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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