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________________ १६] [मूलाचारे चर्मैदन्तकम्वलादयः क्रोधादयो वा श्रामण्यायोग्याः । चेव चैव । तेसि तेषां सर्वेषां पूर्वोक्तानां । सक्कच्चागो - शक्त्या त्यागः सर्वात्मस्वरूपेणानभिलापः सर्वयापरिहारः । अथवा तेषां संगानां परिग्रहाणां त्याग: पाठान्तरम् । इयरम्हि य - इतरेषु च संयमज्ञानशौचोपकरणेषु । णिम्ममो— निर्मम ममत्वरहितत्वं निःसंगत्वम् । असंगो - असंगतत्वम् । किमुक्तं भवति — जीवाश्रिता ये परिग्रहा ये चानाश्रिताः क्षेत्रादयः जीवसम्भवाश्च ये तेपां सर्वेषां मनोवाक्कायैः सर्वथा त्यागः इतरेषु च संयमाद्युपकरणेषु च असङ्गमतिमूर्च्छारहितत्वमित्येतदसङ्गत्र तमिति ॥ पंचमहाव्रतानां स्वरूपं भेदं च निरूप्य पंचसमितीनां भेदं स्वरूपं च निरूपयन्नाह इरिया भासा एसण णिक्खेवादाणमेव समिदीओो । पदिठावणिया य तहा उच्चारादीण पंचविहा ॥ १० ॥ इरिया - ईर्ष्या गमनागमनादिकं । भाषा-भाषा वचनं सत्यमृषा सत्यमृषाऽसत्यमृषाप्रवृत्तिकारणम् । एसणा – एषणा चतुविधाहारग्रहणवृत्तिः । गिक्खेवादाणं - निक्षेपो ग्रहीतस्य संस्थापनं आदानं स्थितस्य ग्रहणं निक्षेपादाने एवकारोऽवधारणार्थः । समिदीओ-समितयः सम्यक्प्रवृत्तयः । समितिशब्दः परिग्रहों का शक्तिपूर्वक त्याग करना, सर्वात्मस्वरूप से इनकी अभिलाषा नहीं करना अर्थात् सर्वथा इनका परिहार करना, अथवा 'तेसि संगच्चागो' ऐसा पाठान्तर होने से उसका यह अर्थ है - इन संग (परिग्रहों) का त्याग करना, और इतर अर्थात् संयम, ज्ञान तथा शौच के उपकरण में ममत्व रहित होना यह असंगव्रत अर्थात् अपरिग्रहव्रत कहलाता है । - तात्पर्य यह है कि जो जीव के आश्रित परिग्रह हैं, जो जीव से अनाश्रित क्षेत्र आदि परिग्रह हैं और जो जीव से सम्भव परिग्रह हैं उन सबका मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करना और इतर संयम आदि के उपकरणों में आसक्ति नहीं रखना, अति मूर्च्छा से रहित होना, इस प्रकार से यह परिग्रहत्याग महाव्रत है । पाँच महाव्रत का स्वरूप और भेदों का निरूपण करके अब पाँच समितियों के भेद और स्वरूप का निरूपण करते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, निक्षेपादान तथा मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापनसम्यकपरित्याग ये समितियाँ पाँच प्रकार की ही हैं ॥ १० ॥ आचारवृत्ति-गमन - आगमन को ईर्ष्या कहते हैं । सत्य, मृषा, सत्यमृषा, और असत्यमृषा अर्थात् सत्य, असत्य, उभय और अनुभय रूप प्रवृत्ति में कारणभूत वचन को भाषा कहते हैं । चतुविध आहार के ग्रहण की वृत्ति को एषणा कहते हैं । ग्रहण की हुई वस्तु को रखना निक्षेप है और रखी हुई का ग्रहण करना आदान है ऐसा निक्षेपादान का लक्षण है । मलमूत्रादि का प्रतिष्ठापन अर्थात् सम्यक् प्रकार से परित्याग करना प्रतिष्ठापनिका का लक्षण है । सम्यक् प्रवृत्ति को समिति कहते हैं । यह समिति प्रत्येक के साथ सम्बन्धित है । ईर्या की समिति ईर्यासमिति है अर्थात् सम्यक् प्रकार से अवलोकन करना, एकाग्रमना होते हुए प्रयत्नपूर्वक गमन - आगमन आदि करना । भाषा की समिति भाषा समिति है अर्थात् शास्त्र और धर्म से अविरुद्ध पूर्वापर विवेक सहित निष्ठुर आदि वचन न बोलना । एषणा आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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