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मूलगुणाधिकारः] त्रिमोकपूज्यं देवभावनमनुष्यैरर्चनीयम्। हवे.-भवेत्। बंभं-ब्रह्मचर्यम् । देवमनुष्यतिरश्चां वृद्धबालयोवनस्वरूपं स्त्रीत्रिक दृष्ट्वा यथासंख्येन माता सुता भगिनीव चिन्तनीयम् । तेषां प्रतिरूपाणि च तथैव चिन्तनीयानि । स्त्रीकथादिकं च वर्जनीयम् । अनेन प्रकारेण सर्वपूज्यं ब्रह्मचर्य नवप्रकारमेकाशीतिभेदं द्वाषष्ट्यधिकं शतं चेति ॥ पंचमव्रतस्वरूपपरीक्षार्थमुत्तरसूत्रमाह
जीवणिबद्धाऽबद्धा परिग्गहा जीवसंभवा चेव ।
तेसि सक्कच्चागो इयरम्हि य णिम्ममोऽसंगो॥६॥ जीवणिबद्धा-जीवेषु प्राणिषु निबद्धाः प्रतिबद्धा जीवनिबद्धाः प्राण्याश्रिता मिथ्यात्व-वेद राग-हास्य-रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-क्रोध-मान-माया-लोभादयः दासीदासगोऽश्वादयो वा। अबद्धा-अप्रतिबद्धा अनाश्रिता जीवपृथग्भूता: क्षेत्रवास्तुधनधान्यादयः । परिग्गहा-परिग्रहाः समन्तत आदानरूपा मूर्छा । जीवसम्भवा-जीवेभ्यः सम्भवो येषां ते जीवसम्भवा जीवोद्भवा मुक्ताफलशङ्खशुक्तितीन प्रकार की अवस्थाओं को देखकर क्रम से उन्हें माता, पुत्री और बहन के समान समझना चाहिए। उनके प्रतिबिम्बों को भी देखकर वैसा समझना चाहिए। तथा स्त्रीकथा आदि का भी त्याग कर देना चाहिए। इस प्रकार से सर्वपूज्य ब्रह्मचर्य व्रत नवप्रकार का, इक्यासी प्रकार का और एक सौ बासठ प्रकार का होता है।
विशेषार्थ-स्त्री पर्याय तीन गतियों में पाई जाती है इसलिए स्त्री के मूलरूप से तीन भेद किये गये हैं। देवी में यद्यपि स्वभावतः बाल, वृद्ध और युवती का विकल्प नहीं होता तथापि विक्रिया से यह भेद सम्भव है। इन तीनों प्रकार की स्त्रियों के बाल, वृद्ध और यौवन की अपेक्षा तीन अवस्थाएँ होती हैं। इस प्रकार : भेद हुए। ६ प्रकार के भेदों में मन वचन काय से गुणा करने पर २७ भेद एवं २७ को कृत, कारित अनुमोदना से गुणा करने पर ८१ भेद होते हैं। फिर ८१ को चेतन और अचेतन दो भेदों से गूणा कर दिया जाए तो १६२ की संख्या प्राप्त होती है। अचेतन का विकल्प काष्ठ-पाषाण आदि की प्रतिमाओं एवं चित्रों से सम्भव है।
अब पंचमव्रत के स्वरूप की परीक्षा के लिए अगला सूत्र कहते हैं---
गाथार्थ-जीव से सम्बन्धित, जीव से असम्बन्धित और जीव से उत्पन्न हुए ऐसे ये तीन प्रकार के परिग्रह हैं। इनका शक्ति से त्याग करना और इतर परिग्रह में (शरीर उपकरण आदि में) निर्मम होना यह असंग अर्थात् अपरिग्रह नाम का पाँचवाँ व्रत है।६।।
प्राचारवृत्ति-मिथ्यात्व, वेद, राग, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ आदि अथवा दासी, दास, गो, अश्व आदि ये जीव से निबद्ध अर्थात् जीव के आश्रित परिग्रह हैं । जीव से पृथग्भूत क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य आदि जीव से अप्रतिबद्ध, जीव से अनाश्रित, परिग्रह हैं । जीवों से उत्पत्ति है जिनकी ऐसे मोती, शंख, सीप, चर्म, दाँत, कम्बल आदि अथवा श्रमणपने के अयोग्य क्रोध आदि परिग्रह जीवसम्भव कहलाते हैं । सब तरफ से ग्रहण करने रूप मूर्छा परिणाम को परिग्रह कहते हैं । इन सभी प्रकार के
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