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[मूलाधार हिंसाविरदी सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च बंभं च ।
संगविमुत्ती य तहा महव्वया पंच पण्णत्ता ॥४॥ त्रिविधा चास्य शास्त्रस्याचाराख्यस्य प्रवृत्तिः, उद्देशो, लक्षणं, परीक्षा इति। तत्र नामधेयेन मूलगुणाभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टानां तत्त्वव्यवस्थापको धर्मो लक्षणम् । लक्षितानां यथालक्षणमुपद्यते नेति, प्रमाणरावधारणं परीक्षा तत्रोद्देशार्थमिदं सूत्रम् । उत्तरं पुनर्लक्षणम्, परीक्षा पुनरुत्तरत्र, एवं त्रिविधा व्याख्या । अथवा संग्रहविभागविस्तरस्वरूपेण त्रिविधा व्याख्याः । अथवा सूत्रवृत्तिवार्तिकस्वरूपेण त्रिविधा। अथवा सूत्र-प्रतिसूत्र-विभाषासूत्रस्वरूपेण त्रिविधेति । एवं सर्वत्राभिसम्बन्धः कर्तव्य इति । हिंसाविरदी–प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं, प्रमादः सकषायत्वं, तद्वानात्मपरिणामः प्रमत्तः, प्रमत्तस्य योग: प्रमत्तयोगस्तस्मात्प्र- . मत्तयोगाद्दशप्राणानां वियोगकरणं हिंसेति, तस्या विरतिः परिहार: हिंसाविरतिः सर्वजीवविषया दया। सच्चं--सत्यं असदभिधानत्याग: "असदभिधानमनतं" सच्छब्द: प्रशंसावाची न सदसत् अप्रशस्तमिति यावत असतोऽर्थस्याभिधानमसदभिधानं, अनृतं-ऋतं सत्यं न ऋतं अनृतं किंपुनस्तदप्रशस्तं प्राणिपीडाकरं यद्वचनं तदप्रशस्तं विद्यमानार्थविषयमविद्यमानार्थविषयं वा तस्यासदभिधानस्य त्यागः सत्यं । अवत्तपरिवज्जणं
__ गाथार्थ-हिंसा का त्याग, सत्य बोलना, अदत्त वस्तुग्रहण का त्याग, ब्रह्मचर्य और परिग्रह-त्याग ये पाँच महाव्रत जिनेन्द्र देव द्वारा कहे गये हैं ॥४॥
प्राचारवृत्ति-इस आचार अर्थात् मूलाचार नाम के ग्रन्थ की प्रवृत्ति (रचना) तीन प्रकार की है-उद्देश, लक्षण और परीक्षा। उनमें से नाम रूप से मूलगुणों का कथन करना उद्देश है। कहे गये पदार्थों के स्वरूप को व्यवस्था करने वाला धर्म लक्षण कहलाता है और जिनका लक्षण किया गया है ऐसे पदार्थों का जैसे-का-तैसा लक्षण है या नहीं, इस प्रकार से प्रमाणों के द्वारा अर्थ का निर्णय (निश्चय) करना परीक्षा है। इनमें से उद्देश के लिए यह गाथासूत्र है । पुनः इसके आगे इनका लक्षण है, और परीक्षा आगे-आगे यथास्थान की गई है। इस प्रकार से व्याख्या तीन प्रकार की होती है ।
___ अथवा संग्रह, विभाग और विस्तर रूप से तीन प्रकार की व्याख्या मानी गई है। अथवा सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के स्वरूप से भी व्याख्या तीन प्रकार की हो जाती है या सूत्र, प्रतिसूत्र और विभाषा सूत्र के स्वरूप से भी व्याख्या के तीन भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार से सभी जगह सम्बन्ध लगा लेना चाहिए।
प्रमत्तयोग से प्राणों का व्यपरोपण-वियोग करना हिंसा है। कषायसहित अवस्था को प्रमाद कहते हैं। कषायसहित आत्मा का परिणाम प्रमत्त कहलाता है। इस प्रमत्त का योग अर्थात् कषाय सहित परिणामों से मन-वचन-काय की क्रिया प्रमत्तयोग है । इस प्रमत्तयोग से दशप्राणों का वियोग करना हिंसा है। उस हिसा का परिहार करना-सभी जीवों के ऊपर दया का होना ही अहिंसा महाव्रत है।
असत् बोलने का त्याग करना सत्यव्रत है। चूंकि 'असत् कथन करना अनृत है' ऐसा सूत्रकार का वचन है । यहाँ पर 'सत्' शब्द प्रशंसावाची है। जो सत् अर्थात् प्रशस्त नहीं है वह अप्रशस्तवचन असत् कहलाता है । अर्थात् अप्रशस्त अर्थ का कथन असत् अभिधान है । ऋत
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