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मूलगुणाधिकारः] - अवश्यकर्तव्यानि आवश्यकानि निश्चयक्रियाः सर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थनियमाः। लोचो-लोचः हस्ताभ्यां मस्तककर्चगतवालोत्पाटः। आचेलक-चेलं वस्त्रं, उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन सर्वपरिग्रहः श्रामण्यायोग्यः चेलशब्देनोच्यते न विद्यते चेलं यस्यासावचेलक: अचेलकस्य भावोऽचेलकत्वं वस्त्राभरणादिपरित्यागः । अण्हाणं-अस्नानं जलसेकोद्वर्तनाभ्यंगादिवर्जनम् । खिदिसयणं-क्षितौ पृथिव्यां तृणफलकपाषाणादौ शयनं स्वपनं क्षितिशयनं स्थाण्डिल्यशायित्वम् । अदंतघंसणं चेव-दन्तानां घर्षणं मलापनयनं दन्तघर्षणं न दन्तघर्षणं अदन्तघर्षणं ताम्बूलदन्तकाष्ठादिवर्जनम्। चशब्द: समुच्चयार्थः । एवकारोऽवधारणार्थः । अदन्तघर्षणमेव च। ठिदिभोयणं-स्थितस्योर्ध्वतनोः"चतुरंगुलपादान्तरस्य भोजनम् । एयभत्तं-एकं च तद्भक्तं चैकभक्तं, एकवेलाहारग्रहणम् । मूलगुणा-मूलगुणा उत्तरगुणाधारभूताः । अट्ठवीसा दु-अष्टाविंशतिः तु शब्दोऽवधारणार्थः, अष्टभिरधिका विशतिरष्टाविंशतिरष्टाविंशतिरेव मूलगुणा नोनाः नाप्यधिका इति ।
द्रव्यार्थिकशिष्यानुग्रहाय संग्रहेण संख्यापूर्वकान् मूलगुणान् प्रतिपाद्य पर्यायाथिकशिष्यावबोधनार्थ विभागेन वार्तिकद्वारेण तानेव प्रतिपादयन्नाह-----
अर्थात सर्व कर्म के निर्मलन करने में समर्थ नियम विशेष को आवश्यक कहते हैं। ये आवश्यक छह ही हैं, सात अथवा पाँच नहीं हैं। हाथों से मस्तक और मूंछ के बालों का उखाड़ना लोच कहलाता है। चेल—यह शब्द उपलक्षण मात्र है, इससे श्रमण अवस्था के अयोग्य सम्पूर्ण परिग्रह को चेल शब्द से कहा गया है। नहीं है चेल जिनके, वे अचेलक हैं, अचेलक का भाव अचेलकत्व है अर्थात सम्पूर्ण वस्त्र आभरण आदि का परित्याग करना आचेलक्य व्रत है । जल का सिंचन, उबटन, (तैलमर्दन) अभ्यंगस्नान आदि का त्याग करना अस्नान व्रत है। क्षिति-पृथ्वी पर एवं तृण, फलक (पाटे), पाषाण-शिला आदि पर सोना क्षितिशयन गुण कहलाता है। यही स्थाण्डिल-खुले स्थान पर सोने रूप स्थाण्डिलशायी गुण है । दाँतों का घर्षण करना-दन्तमल को दूर करना दन्तघर्षण कहलाता है । दन्तघर्षण नहीं करना अदन्नघर्षण है अर्थात् तांबल , दन्तकाष्ठ (दातोन) आदि का त्याग करना। पैरों के चार अंगुल अन्तराल से खड़े होकर भोजन करना स्थितिभोजन है। एक वेला में आहार ग्रहण करना एकभुक्त नाम का मूलगुण है। यहाँ गाथा में च शब्द समुच्चय अर्थ के लिए है और एवकार शब्द अवधारण अर्थात् निश्चय के लिए है। ये मूलगुण उत्तरगुणों के लिए आधारभूत हैं अर्थात् उत्तरगुणों के लिए जो आधारभूत हैं वे ही मूलगुण कहलाते हैं। मूलगुणों के विना उत्तरगुण नहीं हो सकते हैं, ऐसा अभिप्राय है। ये मूलगुण अट्ठाईस होते हैं। यहाँ पर गाथा में तु शब्द अवधारण के लिए है अर्थात् ये मूलगुण अट्ठाईस ही हैं, न इससे कम हैं और न इससे अधिक ही हो सकते हैं।
द्रव्याथिक नय (सामान्य) से समझने वाले शिष्यों के अनुग्रह हेतु संग्रह रूप से संख्यापूर्वक मूलगुणों का प्रतिपादन करके अब पर्यायाथिक नय विशिष्टरूप से समझने वाले शिष्यों को समझाने के लिए विभागरूप से वार्तिक द्वारा उन्हीं मूलगुणों को प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं
१.कर्द्धज्ञोः । २. अस्य स्थाने जानोरिति पाठः।
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