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________________ षगवश्यकाधिकारः] [४६३ दिविषयपरिणामः, समाधौ विषयसन्यसनेन पंचनमस्कारस्तवनपरिणामः, गुणेषु गुणविषयपरिणामः, ब्रह्मचर्ये मैथुनपरिहारविषयपरिणामः, षट्कायेष पृथिवीकायादिरक्षणपरिणामः, क्षमायां क्रोधोपशमनविषयपरिणाम:, निग्रह इन्द्रियनिग्रहबिषयोऽभिलाषः, आर्जवमार्दवविषय: परिणामः, मुक्ती सर्वसंगपरित्यागविषयपरिणामः, विनयविषयः परिणामः, श्रद्धानविषयः परिणाम ||६८१॥ उपसंहरन्नाह एवंगुणः पूर्वोक्तमनःसंकल्पो मनःपरिणामः महार्थः कर्मक्षयहेतुः प्रशस्त: शोभनो विश्वस्तः सर्वेषां विश्वासयोग्यः संकल्प इति सम्यग्ध्यानमिति विजानीहि जिनशासने सम्मतं सर्व समस्तमिति, एवंविशिष्टं ध्यानं कायोत्सर्गेण स्थितस्य योग्यमिति ॥६८२।। अप्रशस्तमाह परिवारइड्ढिसक्कारपूयणं असणपाणहेऊ वा। लयणसयणासणं भत्तपाणकामट्ठहेऊ वा॥६८३॥ प्राज्ञाणिद्देसपमाणकित्तीवण्णणपहावणगुणठें। झाणमिणमप्पसत्थं मणसंकप्पो दु वीसत्थो॥६८४॥ परिणाम, समाधि-विषयों के संन्यसन अर्थात् त्यागपूर्वक पंचनमस्कार स्तवनरूप परिणाम, गुणविषयक परिणाम, ब्रह्मचर्य-मैथुन के त्यागरूप परिणाम, षट्काय-छह जीवनिकायों की रक्षा का परिणाम, क्षमा--क्रोध के उपशमनविषयक परिणाम, निग्रह–इन्द्रियों के निग्रह की अभिलाषा, आर्जव और मार्दव रूप भाव, मुक्ति-सर्वसंग के त्याग का परिणाम, विनयविनय का भाव और श्रद्धान-तत्त्वों में श्रद्धा रूप परिणाम, ये सब शुभ हैं। इन गुणों से विशिष्ट जो मन का संकल्प अर्थात् मन का परिणाम है वह महार्थकर्म के क्षय में हेतु है, प्रशस्त-शोभन है और विश्वस्त-सभी के विश्वास योग्य है। यह संकल्प सम्यक्–समीचीन ध्यान है। पूर्वोक्त ये सभी परिणाम जिनशासन को मान्य हैं। अर्थात् इस प्रकार का ध्यान कायोत्सर्ग से स्थित हुए मुनि के लिए योग्य है-उचित है ऐसा तुम जानो। भावार्थ-कायोत्सर्ग को करते हुए मुनि यदि दर्शन, ज्ञान आदि में (उपर्युक्त दो गाथा कथित विषयों में) अपना उपयोग लगाते हैं तो उनका वह शुभ संकल्प कहलाता है जो कि उनके योग्य है, क्योंकि शुक्लध्यान के पहले-पहले तो सविकल्प ध्यान ही होता है जो कि नाना विकल्पों रूप अप्रशस्त मनःपरिणाम को कहते हैं गाथार्थ-परिवार, ऋद्धि, सत्कार, पूजा अथवा भोजन-पान इनके लिए, अथवा लयन, शयन, आसन, भक्त, प्राण, काम और अर्थ के हेतु ।।६८३॥ तथा आज्ञा, निर्देश, प्रमाणता, कीर्ति, प्रशंसा, प्रभावना, गुण और प्रयोजन यह सब ध्यान अप्रशस्त हैं, ऐसा मन का परिणाम अविश्वस्त-अप्रशस्त है।।६८४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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