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[मूलाचारे आर्तध्यानं रौद्रध्यानं च द्वे ध्याने यः पर्यककायोत्सर्गण स्थितो ध्यायति तस्यैष कायोत्सर्ग उपविष्टोपविष्टो नाम ॥६७६।।
कायोत्सर्गेण स्थितः शुमं मनःसंकल्पं कुर्यात् परन्तु कः शुभो मनःसंकल्प इत्याह
दसणणाणचरित्ते उवोगे संजमे विउस्सग्गे । पच्चक्खाणे करणे पणिधाणे तह य समिदीसु ॥६८०।। विज्जाचरणमहव्वदसमाधिगुणबंभचेरछक्काए । खमणिग्गह अज्जवमद्दवमुत्तीविणए च सद्दहणे॥६८१॥ एवंगुणो महत्थो मणसंकप्पो पसत्थ वीसत्थो।
संकप्पोत्ति वियाणह जिणसासणसम्मदं सव्वं ॥६८२॥
दर्शनज्ञानचारित्रेषु यो मनःसंकल्प उपयोगे ज्ञानदर्शनोपयोगे यश्चित्तव्यापारः संयमविषये य: परिणामः कायोत्सर्गस्य हेतोर्यत ध्यानं प्रत्याख्यानग्रहणे य: परिणामः करणेषु पंचनमस्कारषडावश्यकासिकानिषधकाविषये शुभयोगस्तथा प्रणिधानेषु धर्मध्यानादिविषयपरिणाम: समितिले समितिविषयः परिणामः ॥६८०॥
तथाविद्यायां द्वादशांगचतुर्दशपूर्वविषयः संकल्पः, आचरणे भिक्षाशुद्धयादिपरिणामः, महाव्रतेषु अहिंसा
प्राचारवृत्ति-गाथा सरल है।
कायोत्सर्ग से स्थित हुए मुनि शुभ मनःसंकल्प करें, तो पुनः शुभ मनःसंकल्प क्या है ? सो ही बताते हैं
___ गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र में, उपयोग में, संयम में, व्युत्सर्ग में, प्रत्याख्यान में, क्रियाओं में, धर्मध्यान आदि परिणाम में, तथा समितियों में ।।६८०।।
विद्या, आचरण, महाव्रत, समाधि, गुण और ब्रह्मचर्य में, छह जीवकायों में, क्षमा, निग्रह, आर्जव, मार्दव, मुक्ति, विनय तथा श्रद्धान में ॥६८१॥
मन का संकल्प होना, सो इन गुणों से विशिष्ट महार्थ, प्रशस्त और विश्वस्त संकल्प है। यह सब जिनशासन में सम्मत है ऐसा जानो ॥६८२।।
प्राचारवत्ति-दर्शन, ज्ञान और चारित्र में जो मन का संकल्प है वह शुभ संकल्प है, ऐसे ही उपयोग-ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग में जोचित्त का व्यापार संयम के विषय में परिणाम, कायोत्सर्ग के लिए ध्यान, प्रत्याख्यान के ग्रहण में परिणाम तथा करण में अर्थात् पंचपरमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक क्रिया, आसिका और निषधिका इन तेरह क्रियाओं के विषय में शुभयोग तथा प्रणिधान-धर्म-ध्यान आदि विषयक परिणाम और समिति विषयक जो परिणाम है वह सब शुभ है।
विद्या-द्वादशांग और चौदह पूर्व विषयक संकल्प अर्थात्. उस विषयक परिणाम, आचरण-भिक्षा शुद्धि आदि रूप परिणाम, महाव्रत-अहिंसा आदि पाँच महाव्रत विषयक
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