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पावश्यकाधिकारः]
[४८३ ईर्यापथातीचारनिमित्तं कायोत्सर्ग मोक्षमार्ग स्थित्वा व्युत्सृष्टत्यक्तदेहाः सन्तः शुद्धाः कुर्वन्ति दुःखक्षयार्थमिति ॥६६४॥
तथा
भत्ते पाणे गामंतरे य चदुमा सियवरिसचरिमेसु ।
'णाऊण ठंति धीरा घणिद दुक्खक्खयट्ठाए ॥६६॥
भक्तपानग्रामान्तरचातुर्मासिकसांवत्सरिकचरमोत्तमार्थविषयं ज्ञात्वा कायोत्सर्गे तिष्ठति दैवसिकादिषु च धीरा अत्यर्थं दुःखक्षयार्थ नान्येन कार्येणेति ।।६६५।।
यदर्थ कायोत्सर्ग करोति तमेवार्थ चिन्तयतीत्याह
कालोसग्गमि ठिदो चितिद् इरियावधस्स अदिचारं । तं सव्वं समाणित्ता धम्म सुक्कं च चितेज्जो ॥६६६॥
प्राचारवृत्ति-गाथा सरल है। तथा और भी हेतु बताते हैं
गाथार्थ-भोजन, पान, ग्रामान्तर गमन, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इनको जानकर धीर मुनि अत्यर्थ रूप से दुःखक्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ॥६६५॥
प्राचारवृत्ति-आहार, विहार, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन विषयों को जानकर धैर्यवान् साधु अतिशय रूप से दुःखक्षय के लिए दैवसिक आदि प्रतिक्रमण क्रियाओं के कायोत्सर्ग में स्थित होते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए नहीं।
___ भावार्थ- साधु अपने आहार, विहार आदि चर्याओं के दोष शोधन में तथा पाक्षिक आदि प्रतिक्रमण सम्बन्धी क्रियाओं में कायोत्सर्ग धारण करते हैं. सो केवल संसार के दुःखों से छुटने के लिए ही करते हैं, न कि अन्य किसी लौकिक प्रयोजन आदि के लिए, ऐसा अभिप्राय समझना।
साधु जिस लिए कायोत्सर्ग करते हैं उसी अर्थ का चिन्तवन करते हैं, सो ही बताते हैं
गाथार्थ कायोत्सर्ग में स्थित हुआ साधु ईर्यापथ के अतिचार के विनाश का चिन्तवन करता हुआ उन सबको समाप्त करके धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान का चिन्तवन करे ॥६६६।। १ क काऊण वंति वीरा सणिदं । फलटन से गाथा में अन्तर है
एवं दिवसियराइयपक्खिय चादुम्मासियवरिसचरिमेसु ।
णादण ठंति धीरा घणिदं दुक्खक्खयट्ठाए।
अर्थ-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ इन सम्बन्धी प्रतिक्रमणों के विषय को जानकर धीर साधु दुःखों का अत्यन्त क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग धारण करते हैं, अन्य प्रयोजन के लिए नहीं।
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