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________________ ४८२] [मूलाचारे कर्ताः तथाईच्छय्यायां जिनेन्द्रनिर्वाणसमवसृतिकेवलज्ञानोत्पत्तिनिष्क्रमणजन्मभूमिस्थानेषु वन्दनाभक्तिहेतोर्गतेन पंचविंशतिरुच्छ्वासाः कायोत्सर्गे कर्तव्याः । तथा श्रमणशय्यायां निषद्यिकास्थानं गत्वाऽऽगतेन पंचविंशतिरुच्छवासाः कायोत्सर्गे कर्तव्यास्तथोच्चारे वहिभूमिगमनं कृत्वा' प्रस्रवणे प्रस्रवणं च कृत्वा यः कायोत्सर्गः क्रियते तत्र नियमेनेति ॥६६२।। तथा उद्देसे णिद्देसे सज्झाए वंदणे य पणिधाणे। सत्तावीसुस्सासा काप्रोसग्गह्मि कादव्वा ॥६६३॥ उद्देशे ग्रन्थादिप्रारम्भकाले निर्देश प्रारब्धग्रन्थादिसमाप्तौ च कायोत्सर्गे सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः कर्तव्याः । तथा स्वाध्याये स्वाध्यायविषये कायोत्सर्गास्तेषु च सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः कर्तव्याः । तथा वन्दनायां ये कायोत्सर्गास्तेष च प्रणिधाने च मनोविकारे चाशुभपरिणामे तत्क्षणोत्पन्ने सप्तविंशतिरुच्छवासाः कायोत्सर्गे कर्तव्या इति ॥६६३॥ एवं प्रतिपादितक्रमं कायोत्सर्ग किमर्थमधितिष्ठन्तीत्याह-- कामोसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि। वोसट्ठचत्तदहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए ॥६६५॥ दूसरे ग्राम में जाने पर कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए। जिनेन्द्रदेव की निर्वाण भूमि, समवसरण भूमि, केवलज्ञान की उत्पत्ति का स्थान, निष्क्रमणभूमि और जन्मभूमि इन स्थानों की वन्दना भक्ति के लिए जाने पर कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए। श्रमण शय्या-मुनियों के निषद्या स्थान में जाकर आने से कायोत्सर्ग में पच्चीस उच्छ्वास करना चाहिए। तथा बहिभूमि गमन-मलविसर्जन के बाद और मूत्र विसर्जन के बाद नियम से पच्चीस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए । उसी प्रकार और भी बताते हैं गाथार्थ-ग्रन्थ के प्रारम्भ में, समाप्ति में, स्वाध्याय में, वन्दना में और अशुभ परिणाम के होने पर कायोत्सर्ग करने में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए ॥६६३।। __आचारवृत्ति-उद्देश--ग्रन्थादि के प्रारम्भ करते समय, निर्देश-प्रारम्भ किए ग्रन्थादि की समाप्ति के समय कायोत्सर्ग में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए। स्वाध्याय के कायोत्सर्गों में तथा वन्दना के कायोत्सर्गों में सत्ताईस उच्छ्वास करना चाहिए। इसी तरह प्रणिधान-मन के विकार के होने पर और अशुभ परिणाम के तत्क्षण उत्पन्न होने पर सत्ताईस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए। इस प्रतिपादित क्रम से कायोत्सर्ग किसलिए करते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-मोक्षमार्ग में स्थित होकर ईर्यापथ के अतीचार शोधन हेतु शरीर से ममत्व छोड़कर साधु दुःखों के क्षय के लिए कायोत्सर्ग करते हैं ॥६६४॥ १ क कृत्वा यः कायोत्सर्गः क्रियते तत्र गतेन पंचविंशतिरुध्वासाः कायोत्सर्ग नियमेन कर्तव्या इति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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