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________________ ४७६] [সুনাম্বাই मिथ्यात्वाद्यतीचारशोधनाय भावकायोत्सर्गः कायोत्सर्गव्यावर्णनीयप्राभृतज्ञ उपयुक्तसंज्ञानजीवप्रदेशो वा भावकायोत्सर्गः, एवं नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावविषय एष कायोत्सर्गनिक्षेपः षड्विधो ज्ञातव्य इति ॥६५०॥ कायोत्सर्गकारणमन्तरेण कायोत्सर्गः प्रतिपादयितुं न शक्यत इति तत्स्वरूपं प्रतिपादयन्नाह काउस्सग्गो काउस्सग्गी काउस्सगस्स कारणं चेव । एदेसि पत्तेयं परूवणा होदि तिण्हंपि ॥६५१॥ कायस्य शरीरस्योत्सा: परित्याग: कायोत्सर्गः स्थितस्यासीनस्य सर्वांगचलनरहितस्य शुभध्यानस्य वत्तिः कायोत्सर्गोऽस्यास्तीति कायोत्सर्गी असंयतसम्यग्दष्टयादिभव्यः कायोत्सर्गस्य कारणं हेतुरेव तेषां त्रयाणामपि प्रत्येक प्ररूपणा भवति ज्ञातव्येति ॥६५॥ तावत्कायोत्सर्गस्वरूपमाह वोसरिदबाहुजुगलो चदुरंगुलअंतरेण समपादो। सव्वंगचलणरहिनो काउस्सग्गोविसुद्धो दु॥६५२॥ व्युत्सृष्टं त्यक्तं बाहुयुगलं यस्मिन्नवस्थाविशेषे सो व्युत्सृष्टबाहुयुगलः प्रलंबितभुजश्चतुरंगुलमन्तरं ययोः पादयोस्तौ चतुरंगुलान्तरौ । चतुरंगुलान्तरौ समौ पादौ यस्मिन्स चतुरंगुलान्तरसमपादः । सर्वेषामंगानां करचरणशिरोग्रीवाक्षिभ्रू विकारादीनां चलनं तेन रहित: साँगचलनरहितः सर्वाक्षेपविमुक्तः, एवंविधस्तु कायोत्सर्ग है अथवा कायोत्सर्ग के वर्णन करनेवाले प्राभत का ज्ञाता तथा उसमें उपयोग सहित और उसके ज्ञान सहित जीवों के प्रदेश भी भाव कायोत्सर्ग हैं । इस तरह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव विषयक यह कायोत्सर्ग का निक्षेप छह रूप जानना चाहिए। कायोत्सर्ग के कारण बिना बताए कायोत्सर्ग का प्रतिपादन करना शक्य नहीं है इसलिए उनके स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं. . गाथार्थ-कायोत्सर्ग, कायोत्सर्गी और कायोत्सर्ग के कारण इन तीनों की भी पृथक्पृथक् प्ररूपणा करते हैं ।।६५१॥ प्राचारवृत्ति-काय-शरीर का उत्सर्ग-त्याग कायोत्सर्ग है अर्थात् खड़े होकर या बैठकर सर्वांग के हलन-चलन रहित शुभध्यान की जो वृत्ति है वह कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग जिसके है वह कायोत्सर्गी है अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मुनि आदि भव्य जीव कायोत्सर्ग करनेकाले हैं। तथा कायोत्सर्ग के हेतु-निमित्त को कारण कहते हैं । इन तीनों की प्ररूपणा आचार्य स्वयं करते हैं। पहले कायोत्सर्ग का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-जो चार अगुल के अन्तर से समपाद रूप है, जिसमें दोनों बाहु लटका दी गई हैं, जो सर्वांग के चलन से रहित, विशुद्ध है वह कायोत्सर्ग कहलाता है ॥६५२॥ प्राचारवृत्ति-जिस अवस्था विशेष में दोनों भुजाओं को लम्बित कर दिया है, पैरों में चार अंगुल अन्तर रखकर दोनों पैर समान किये हैं। जिसमें हाथ, पैर, मस्तक, ग्रीवा, नेत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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