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________________ trictuerfधकारः ] [ ४५६ आलोचनं गुरुवेऽपराधनिवेदनं अर्हद्भट्टारकस्याग्रतः स्वापराधाविष्करणं वा स्वचित्तेऽपराधानामनवगूहनं, दिवसे भवं दैवसिकं, रात्रौ भवं रात्रिक, ईर्यापथे भवमंर्यापथिकं बोद्धव्यं । पक्षे भवं पाक्षिकं चतुर्षु मासेषु भवं चातुर्मासिकं, संवत्सरे भवं सांवत्सरिक, उत्तमार्थे भवमौत्तमार्थं च दिवसरात्रीर्यापथपक्षचतुर्माससंवत्सरोत्तमार्थविषयजातापराधानां गुर्वादिभ्यो निवेदनं सप्तप्रकारमालोचनं वेदितव्यमिति ॥ ६२१ ॥ आलोचनीयमाह प्रणाभोगकिदं कम्म जं किवि मणसा कदं । तं सव्वं श्रालोचेज्जहु' श्रव्वाखित्तेण चेदसा ।। ६२२ ॥ आभोगः सर्वजनपरिज्ञातव्रतातीचारोऽनाभोगो न परैर्ज्ञातस्तस्मादनाभोगकृतं कर्माऽऽभोगमन्तरेण कृतातीचारस्तथाभोगकृतश्वातीचारश्च तथा यत्किचिन्मनसा च कृतं कर्म तथा कायवचनकृतं च तत्सर्वमालो उत्तमार्थ यह सात तरह की आलोचना जाननी चाहिए ।। ६२१ ॥ * आचारवृत्ति - गुरु के पास अपने अपराध का निवेदन करना अथवा अर्हत भट्टारक के आगे अपने अपराधों को प्रगट करना अर्थात् अपने चित्त में अपराधों को नहीं छिपाना यह आलोचना है । यह भी दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसी सातभेदरूप है । अर्थात् दिवस, रात्रिक, ईर्यापथ, चार मास, वर्ष और उत्तमार्थ इनके इन विषयक हुए अपराधों को गुरु आदि के समक्ष निवेदन रूप आलोचना होती है । आलोचना करने योग्य क्या है ? सो बताते हैं गाथार्थ -जो कुछ भी मन के द्वारा कृत अनाभोगकर्म है, मुनि विक्षेप रहित चित्त से उन सबकी आलोचना करे ।। ६२२॥ श्राचारवृत्ति - सभी जनों के द्वारा जाने गए व्रतों के अतीचार आभोग हैं और जो अतीचार पद के द्वारा अज्ञात हैं वह अनाभोग हैं । यह अनाभोगकृत कर्म और आभोगकृत भी कर्म तथा मन से किया गया दोष, वचन और काय से भी किया गया दोष, ऐसा जो कुछ भी १ क आलोचज्जाहु । * यह गाथा फलटन से प्रकाशित मुलाचार की प्रति में में अधिक है आलोचिय अवराहं ठिदिओ सुद्धो अहंति तुट्टमणो । पुणरवि तमेव जुज्जइ तोसत्थं होइ पुणरुत्तं ॥ अर्थ - खड़े होकर गुरु के समीप अपराधों का निवेदन करके मैं शुद्ध हुआ ऐसा समझकर जो आनन्दित हुआ है ऐसा वह आलोचक यदि पुनः आनन्द के लिए उसी दोष की आलोचना करता है तो वह बालोचना पुनरुक्त होती है । २. अर्हन्त की प्रतिमा के सामने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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