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________________ ४५८ ] [ मूलाधारे मिथ्यात्वस्य प्रतिक्रमणं त्यागस्तद्विषयदोषनिर्हरणं तथैवासंयमस्य प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारपरिहारः । कषायाणां क्रोधादीनां प्रतिक्रमणं तद्विषयातीचारशुद्धिकरणं । योगानामप्रशस्तानां प्रतिक्रमणं मनोवाक्कायविषयव्रतातीचारनिवर्त्तनमित्येवं भावप्रतिक्रमणमिति ।। ६१६ ॥ आलोचनापूर्वकं यतोऽत आलोचनास्वरूपमाह atra aarti पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो । श्रालोचिज्ज सुविहिदो गारव माणं च मोत्तूण ॥ ६२० ॥ कृतिकर्म विनयं सिद्धभक्तिश्रुतभक्त्यादिकं कृत्वा पूर्वापरशरीरभागं स्वोपवेशनस्थानं च प्रतिलेख्य सम्मार्थ्यं पिच्छिकया चक्षुषा चाथवा चारित्रातीचारान् सम्यङ्घ्रिरूप्यांजलिकरणं शुद्धिर्ललाटपट्टविन्यस्तकरकुड्मलक्रियाशुद्ध एवमालोचयेत् गुरवेऽपराधान्निवेदयेत् सुविहितः सुचरितः स्वच्छवृत्तिः ऋद्धिगौरवं रसगौरवं मानं च जात्यादिमदं मुक्त्वा परित्यज्यैवं गुरवे स्वव्रतातीचारान्निवेदयेदिति ॥ ६२० ॥ आलोचनाप्रकारमाह आलोचणं दिवसियं रादिअ इरियापधं च बोद्धव्वं । पक्खिय चादुम्मा सिय संवच्छरमुत्तमट्ठे च ॥ ६२१॥ श्राचारवृत्ति - मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण - त्याग करना अर्थात् उस विषयक दोष को दूर करना, उसी प्रकार से असंयम का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचार का परिहार करना, धादिकषायों का प्रतिक्रमण अर्थात् उस विषयक अतीचारों को शुद्ध करना, अप्रशस्त योगों का प्रतिक्रमण अर्थात् मनवचनकाय से हुए अतीचारों से निवृत्त होना, यह सब भावप्रतिक्रमण है । भावार्थ -- मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मबन्ध के कारण हैं । इनसे हुए दोषों को दूर करना ही भावप्रतिक्रमण है । आलोचनापूर्वक प्रतिक्रमण होता है अतः आलोचना का स्वरूप कहते हैं— गाथार्थ—कृतिकर्म करके, तथा पिच्छी से परिमार्जन कर, अंजली जोड़कर, शुद्ध हुआ गौरव और मान को छोड़कर समाधान चित्त हुआ साधु आलोचना करे ॥ ६२० ॥ आचारवृत्ति - कृतिकर्म - विनय, सिद्ध भक्ति, श्रुत भक्ति आदि करके अपने शरीर के पूर्व - अपर भाग को और अपने बैठने के स्थान को चक्षु से देखकर और पिच्छी से परिमार्जित करके अथवा चारित्र के अतिचारों को सम्यक् प्रकार से निरूपण करके अंजलि जोड़े - ललाट पट्ट पर अंजलि जोड़कर रखे, पुनः ऋद्धि गौरव, रस गौरव और जाति आदि मद को छोड़कर स्वच्छवृत्ति होता हुआ गुरु के पास अपने व्रतों के अतिचारों को निवेदित करे। इसी का नाम आलोचना है । Jain Education International आलोचना के प्रकार कहते हैं गाथार्थ --- दैवसिक, रात्रिक, ऐर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और १ क यावहं च । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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