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________________ षडावश्यकाधिकारः] पुनरप्यन्येन प्रकारेण भेदं प्रतिपादयन्नाह पडिकमलो पडिकमणं पडिकमिदन्वं च होदि णादव। एदेसि पतेयं परूवणा होदितिण्हपि ॥६१६॥ प्रतिकामति कृतदोषाद्विरमतीति प्रतिक्रामक., अथवा दोषनिर्हरणे प्रवर्तते अविध्नेन प्रतिक्रमत इति प्रतिक्रामक: पंचमहाव्रतादिश्रवणधारण दोषनिहरणतत्परः,प्रतिक्रमणं पंचमहाव्रताद्यतीचारविरतिव्रतशुद्धिनिमित्ताक्षरमाला वा, प्रतिक्रमितव्यं द्रव्यं च परित्याज्यं मिथ्यात्वाद्यतीचाररूपं भवति ज्ञातव्यं, एतेषां त्रयाणां प्रत्येकमेकमेकं प्रति प्ररूपणाप्रतिपादनं भवति ॥६१६॥ तथैव प्रतिपादयन्नाह जीवो दु पडिक्कमयो दव्वे खेत्ते य काल भावे य । पडिगच्छदि जेण 'जह्मि तं तस्स भवे पडिक्कमणं ॥६१७।। जीवस्तु प्रतिक्रामक: दोषद्वारागतकर्मविक्षपणशीलो जीवश्चेतना लक्षणः क्व प्रतिक्रामक:? द्रव्यक्षेत्रकालभावविषये, द्रव्यमाहारपुस्तकभेषजोपकरणादिकं, क्षेत्रं शयनासनस्थानचंक्रमणादिविषयो भूभागोंऽगुल पुनरपि अन्य प्रकार से भेदों का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-प्रतिक्रामक, प्रतिक्रमण और प्रतिक्रमण करने योग्य वस्तु इनको जानना चाहिए । इन तीनों को भी अलग-अलग प्ररूपणा करते हैं ।।६१६॥ प्राचारवृत्ति—जो प्रतिक्रमण करता है अर्थात् किए हुए दोषों से विरक्त होता हैउनसे अपने को हटाता है वह प्रतिक्रामक है। अथवा जो दोषों को दूर करने में प्रवृत्त होता है, निर्विघ्नरूप से प्रतिक्रमण करता है वह प्रतिक्रामक है, वह साध पांच महाव्रत आदि को करने, उनको धारण करने और उनके दोषों को दूर करने में तत्पर रहता है। पाँच महाव्रत आदि में हुए अतीचारों से विरति अथवा व्रतशुद्धि निमित्त अक्षरों का समूह प्रतिक्रमण है। मिथ्याल्व, असंयम आदि अतीचाररूप द्रव्य त्याग करने योग्य हैं इन्हें ही प्रतिक्रमितव्य कहते हैं। आगे इन तोनों का पृथक्-पृथक् निरूपण करते हैं। उन्हीं का प्रतिपादन करते हैं गाथार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जीव प्रतिक्रामक होता है । जिसके द्वारा, जिसमें वापस आता है वह उसका प्रतिक्रमण है ॥६१७।। प्राचारवृत्ति-जीव चेतना लक्षणवाला है। जो दोषों द्वारा आए हुए कर्म को दूर करने के स्वभाव वाला है वह प्रतिक्रामक है। किस विषय में प्रतिक्रमण करनेवाला होता है ? द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में प्रतिक्रमण करनेवाला होता है। आहार, १ क 'होदि कायव्वा । २ क जहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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