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________________ षडावश्यकाधिकारः] [४५१ कथं तर्हि वन्दना कुर्वीत साधुरित्याह हत्थंतरेणबाधे संफासपमज्जणं पउज्जंतो। 'जाचेंतो वंदणयं इच्छाकारं कुणइ भिक्खू ॥६११॥ हस्तान्तरेण हस्तमात्रान्तरेण यस्य बन्दना क्रियते यश्च करोति तयोरन्तरं हस्तमात्रं भवेत् तस्मिन् हस्तान्तरे स्थित्वा अणावाधेऽनाबाधे बाधामन्तरेण संफासपमज्जणं स्वस्य देहस्य स्पर्शः संस्पर्शनं कटिगुह्यादिकं च तस्य प्रमार्जनं प्रतिलेखनं शुद्धि पजंतों प्रयुजानः प्रकर्षेण कुर्वन जातो बन्दणयं वन्दनां च याचमानो 'भवद्भयो वन्दनां विदधामि' इति याञ्चां कुर्वनिच्छाकारं वन्दनाप्रणामं करोति भिक्षुः साधुरेवं द्वात्रिंशद्दोषपरिहारेण तावत् द्वात्रिंशद् गुणा भवंति तस्माद्यनपरेण हास्यभयासादनारागद्वेषगौरवालस्यमदलोभस्तेनभावप्रातिकूल्यवालत्वोपरोधहीनाधिकभावशरीरपरामर्शवचनभृकुटिकरणषाटकरणादिवर्जनपरेण देवतादिगतमानसेन विजितकार्यान्तरेण विशुद्धमनोवचनकाययोगेन मौनपरेण वन्दना करणीया वन्दनाकारकेणेति ॥६११॥ तो फिर साधु किस प्रकार वन्दना करे ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-बाधा रहित एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर भूमि शरीर आदि का स्पर्श व प्रमार्जन करता हुआ मुनि वन्दना की याचना करके वन्दना को करता है ॥६११॥ प्राचारवृत्ति-जिसकी वन्दना की है और जो वन्दना करता है उन दोनों में एक हाथ का अन्तर रहना चाहिए अर्थात् गुरु या देव आदि की वन्दना के समय उनसे एक हाथ के अन्तर से स्थित होकर उनको बाधा न करते हुए वन्दना करे । अपने शरीर का स्पर्श और प्रमार्जन अर्थात् कटि, गुह्य आदि प्रदेशों का पिच्छिका से स्पर्श व प्रमार्जन करके शरीर की शुद्धि को करता हुआ प्रकर्ष रीति से वन्दना की याचना करे। अर्थात् 'हे भगवन् ! मैं आपकी वन्दना करूँगा' इस प्रकार याचना-प्रार्थना करके साधु इच्छाकार-वन्दना और प्रणाम को करता है। तथा बत्तीस दोषों के परिहार से बत्तीस ही गण होते हैं। उन गुणों सहित, यत्न में तत्पर हुआ मुनि वन्दना करे । हास्य, भय, आसादना, राग, द्वेष, गौरव, आलस्य, मद, लोभ, चौर्य भाव, प्रतिकूलता, बालभाव, उपरोध-दूसरों को रोकना, हीन या अधिक पाठ बोलना, शरीर का स्पर्श करना, वचन बोलना, भकुटी चढ़ाना, खात्कार-खांसना, खखारना इत्यादि दोषों को छोड़कर वन्दना करे। जिनकी वन्दना कर रहे हैं ऐसे देव या गुरु आदि में अपने मन को लगाकर अर्थात् उनके गुणों में अपने उपयोग को लगाते हुए, अन्य कार्यों को छोड़कर वन्दना करनेवाले को विशुद्ध मन-वचन-काय के द्वारा मौनपूर्वक वन्दना करना चाहिए। भावार्थ-साधु, गुरु या देव की वन्दना करने के लिए कम से कम उनसे एक हाथ दूर स्थित होवे । पिच्छिका से अपने शरीर का एवं भूमि का परिमार्जन करे । पुनः प्रार्थना करे कि 'हे भगवन् ! मैं आपकी वन्दना करूँगा' यदि गुरु की वन्दना की जा रही है तो उनकी स्वीकृति पाकर भय आसादना आदि दोषों को छोड़कर उन में अपना उपयोग स्थिर कर विनयपूर्वक विधिवत उनकी वन्दना करे। उपर्युक्त बत्तीस दोषों से रहित होकर क्रिया करे यह अभिप्राय है। १. जाएंतो इति पाठान्तरं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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