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________________ मूलाधारे प्रौढमपि देवं वा नागयक्षचन्द्रसूर्येन्द्रादिकं वा विरत: संयत: सन् पार्श्वस्थपणकं वा ज्ञानदर्शनचारित्रशिथिलान पंचजनान्निर्ग्रन्थानपि संयत: स्नेहादिना पार्श्वस्थपणकं न वंदेत मातरमसंयतां पितरमसंयतं अन्यं च मोहादिना न स्तुयात् भयेन लोभादिना वा नरेन्द्र न स्तुयात् ग्रहादिपीडाभयाद्देवं सूर्यादिकं न पूजयेत् शास्त्रादिलोभेनान्यतीथिकं न स्तुयादाहारादिनिमित्तं श्रावकं न स्तुयात् । आत्मगुरुमपि विनष्ट न वंदेत तथा वाशब्दसुचितानन्यानपि स्वोपकारिणोऽसंयतान्न स्तुयादिति ॥५६४॥ इति के ते पंच पार्श्वस्था इत्याशंकायामाह पासत्थो य कुसीलो संसत्तोसण्ण मिगचरित्तो य। दसणणाणचरित्ते अणिउत्ता मंदसंवेगा ॥५६॥ संयतगणेभ्यः पार्वे अभ्यासे तिष्ठतीति पार्श्वस्थः वसतिकादिप्रतिबद्धो मोहबहलो रात्रिदिवमुपकरणानां कारकोऽसंयतजनसेवी संयतजनेभ्यो दूरीभूतः, कुत्सितं शीलं आचरणं स्वभावो वा यस्यासी कुशील: क्रोधादिकलुषितात्मा व्रतगुणशीलश्च परिहीनः संघस्यायशःकरणाकुशलः, सम्यगसंयतगुणेष्वाशक्तः संशक्तः आहारादिगृद्ध्या वैद्यमन्त्रज्योतिषादिकुशलत्वेन प्रतिबद्धो राजादिसेवातत्परः, ओसण्णोऽपगतसंज्ञोऽपगता विनष्टा संज्ञा सम्यग्ज्ञानादिकं यस्यासौ अपगतसंज्ञश्चारित्राद्यपहीनो जिनवचनमजानञ्चारित्रादिप्रभ्रष्ट: वि पाँच प्रकार के मुनि जोकि निग्रंथ होते हुए भी दर्शन ज्ञान चारित्र में शिथिल हैं इनकी भी वन्दना न करे। विरत मुनि मोहादि से असंयत माता-पिता आदि की, या अन्य किसी की स्तुति न करे । भय से या लोभ आदि से राजा की स्तुति न करे । ग्रहों की पीड़ा आदि के भय से सूर्य आदि को पूजा न करे। शास्त्रादि ज्ञान के लोभ से अन्य मतावलम्बी पाखंडी साधुओं की स्तुति न करे। आहार आदि के निमित्त श्रावक की स्तुति न करे, एवं स्नेह आदि से पार्श्वस्थ आदि मुनियों की स्तुति न करे । तथैव अपने गुरु भी यदि हीनचारित्र हो गये हैं तो उनकी भी वन्दना न करे तथा अन्य भी जो अपने उपकारी हैं किन्तु असंयत हैं उनकी वन्दना न करे । वे पाँच प्रकार के पार्श्वस्थ कौन हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ---पार्श्वस्थ, कुशील, संसक्त, अपसंज्ञक और मृगचरित्र ये पाँचों दर्शन, ज्ञान और चारित्र में नियुक्त नहीं हैं एवं मन्द संवेग वाले हैं ॥५६५।। प्राचारवृत्ति-जो संयमी के गुणों से 'पार्वे तिष्ठति' 'पास में-निकट में रहते हैं वे पार्श्वस्थ कहलाते हैं। ये मुनि वसतिका आदि से प्रतिबद्ध रहते हैं अर्थात् वसतिका आदि में अपनेपन की भावना रखकर उनमें आसक्त रहते हैं, इनमें मोह की बहुलता रहती है, ये रात-दिन उपकरणों के बनाने में लगे रहते हैं, असंयतजनों की सेवा करते हैं और संयमीजनों से दूर रहते हैं अतः ये पार्श्वस्थ इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं। कुत्सित-शील-आचरण या खोटा स्वभाव जिनका है वे 'कुशाल कहलाते हैं। ये क्रोधादि कषायों से कलुषित रहते हैं, व्रत गुण और शीलों से हीन हैं, संघ के साधुओं की निन्दा करने में कुशल रहते हैं, अतः ये कुशील कहे जाते हैं। जो अच्छी तरह से असंयत गुणों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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