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________________ [४३५ पावश्यकाधिकारः] पंचमहावतैर्गुप्तः पंचमहाव्रतानुष्ठानपरः संविग्नो धर्मफलयोविषये हर्षोत्कंठितदेहोऽनालसः उद्योगवान् अमाणीय अमानी च परित्यक्तमानकषायो निर्जरार्थी ऊनरात्रिको दीक्षया लघुर्यः एवं स कृतिकर्म करोति सदा सर्वकाल, पंचमहाव्रतयुक्तेन परलोकार्थिना विनयकर्म कर्तव्यं भवतीति सम्बन्धः ।।५६२॥ कस्य तत्कृतिकर्म कर्त्तव्यं यत्पृष्टं तस्योत्तरमाह पाइरियउवज्झायाणं पवत्तयत्थेरगणधरादीणं । एदेसि किदियम्म कादव्वं णिज्जरट्ठाए ॥५६३॥ तेषामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणधरादीनां कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जराथं न मन्त्रतन्त्रोपकरणायेति ॥५६॥ एते पुनः क्रियाकर्मायोग्या इति प्रतिपादयन्नाह--- __णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु रिद अण्णतित्थं व। देसविरद देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा ॥५६४॥ णो वंदिज्ज न देत न स्तुयात् के अविरदमधिरतमसंयतं मातरं जननीं पितरं जनक गुरु दीक्षा गुरु श्रुतगुरुमप्यसंयतं चरणादिशिथिल नरेन्द्र राजान अन्यतीथिकं पाखटिनं वा देशविरतं श्रावक शास्त्रादि प्राचारवृत्ति-जो पाँच महाव्रतों के अनुष्ठान में तत्पर हैं, धर्म और जिनका शरीर हर्ष से रोमांचित हो रहा है, आलस्य रहित-उद्यमवान हैं, मान कषाकर हैं, कर्म निर्जरा के इच्छुक हैं ऐसे मुनि दीक्षा में एक रात्रि भी यदि लघु हैं तो वे सर्वकाल गुरुओं की कृतिकर्मपूर्वक वन्दना करें । अर्थात् मुनियों को अपने से बड़े मुनियों की कृतिकर्म पूर्वक विनय करना चाहिए। यहाँ पर कृतिकर्म करनेवाले का वर्णन किया है। किसका वह कृतिकर्म करना चाहिए ? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं--- गाथार्थ-निर्जरा के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर का कृतिकर्म करना चाहिए ।।५६३॥ __ आचारवृत्ति--इन आचार्य आदिकों का कृतिकर्म-विनय कर्म कमों की निर्जरा के लिए करे, मन्त्र-तन्त्र या उपकरण के लिए नहीं। पुनः जो विनयकर्म के अयोग्य हैं उनका वर्णन करते हैं गाथार्थ-अविरत माता-पिता व गुरु की, राजा की, अन्य तीर्थ की, या देशविरत की, अथवा देवों की या पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि की वह विरत मुनि वन्दना न करे ॥५६४॥ प्राचारवृत्ति-असंयत माता-पिता की, असंयत गुरु की अर्थात दीक्षा-गुरु यदि चारित्र में शिथिल-भ्रष्ट हैं या श्रुतगुरु यदि असंयत हैं अथवा चारित्र में शिथिल हैं तो संयत मुनि इनकी वन्दना न करे। वह राजा की, पाखंडी साधुओं की, शास्त्रादि से प्रौढ़ भी देशवती श्रावक की या नाग, यक्ष, चन्द्र सूर्य, इन्द्रादि देवों की भी वन्दना न करे। तथा पार्श्वस्थ आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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