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________________ aratकाधिकार : ] [ ४०५ सामायिके कृते शल्येन विद्धो मृगः पादान्तरे आगत्य व्यवस्थितो वेदनार्त्तः सन् स्तोकबारं स्थित्वा मृतो मृगो नासो श्रावकः सामायिकात् संयमान्निर्गतः संसारदोषदर्शनादिति, तेन कारणेन सामायिकं क्रियत इति सम्बन्धः || ५३४ ॥ सामायिकमुद्दिष्टमित्याशंका यामाह बावीस तित्थयरा सामायियसंजम उवदिसंति । छेदुवठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य ॥ ५३५ ॥ द्वाविंशतितीर्थंकरा अजितादिपार्श्वनाथपर्यन्ताः सामायिकसंयममुपदिशन्ति प्रतिपादयन्ति । छेदोपस्थानं पुनः संयमं वृषभो वीरश्च प्रतिपादयतः ॥ ५३५ ।। किमर्थं वृषभमहावीरौ छेदोपस्थापनं प्रतिपादयतो यस्मात् आचक्खिदुं विभजितुं विण्णादुं चावि सुहदरं होदि । एदेण कारणेण दु महव्वदा पंच पण्णत्ता ॥५३६॥ आचक्खि - आख्यातुं कथयितुं आस्वादयितु ं वा । विभयिदु - विभक्तु ं पृथक्-पृथक् भावयितु ं । बिण्णादु - विज्ञातुमव बोद्धुं चापि । सुहदरं - सुखतरं सुखग्रहणं । होदि - भवति । एवेण - एतेन । कारणेन । उस समय उस जीव की रक्षा का प्रयत्न कर सकते हैं । यदि रक्षा न कर सकें तो उसे महामन्त्र सुनाते हुए तथा नाना प्रकार से सम्बोधन करके शिक्षा देते हुए उसका भवान्तर सुधार सकते हैं पुनः गुरु के पास जाकर सामायिक भंग करने का अल्प प्रायश्चित्त लेकर अपनी शुद्धि कर सकते हैं । किनने सामायिक का उपदेश किया है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ - बाईस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं किन्तु भगवान् वृषभदेव और महावीर छेदोपस्थापना संयम का उपदेश देते हैं ।।५३५|| अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त बाईस तीर्थंकर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं । किन्तु छेदोपस्थापना संयम का वर्णन वृषभदेव और वर्द्धमान स्वामी ने ही किया है । भावार्थ - यहाँ पर अभेद संयम का नाम सामायिक संयम है और मूलगुण आवश्यक क्रिया आदि से भेदरूप संयम का नाम छेदोपस्थापना संयम है ऐसा समझना । वृषभदेव और महावीर ने छेदोपस्थापना का प्रतिपादन किसलिए किया है ? सो ही बताते हैं गाथार्थ - जिस हेतु से कहने, विभाग करने और जानने के लिए सरल होता है उस हेतु से महाव्रत पाँच कहे गये हैं ।।५३६।। श्राचारवृत्ति - कहने के लिए अथवा अनुभव करने के लिए तथा पृथक्-पृथक् भावित करने के लिए और समझने के लिए भी जिनका सुख से अर्थात् सरलता से ग्रहण हो जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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