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________________ ४०४] [मूलाचारे संजातस्तथाप्यसौ न सामायिक व्रतान्निर्गतः । भावश्रमणः संवृत्तस्तहि श्रावकत्वं कथं ? प्रत्याख्यानमन्दतरत्वात् । अत्र कथा वाच्या । तस्मादनेन कारणेन बहुशो बाहुल्येन सामायिकं कुर्यादिति ॥ ५३३ || पुनरपि सामायिकमाहात्म्यमाह सामाइए कदे सावएण विद्धो मो श्ररणाि । सो य मओ उद्धादो ण य सो सामाइयं फिडिश्रो ।।५३४|| सामाइए - सामायिके । कदे —कृते । सावएण - श्रावकेन । विद्धो व्यथितः केनापि । मओमृगो हरिणपोतः । अरणम्मि अरण्येऽटव्यां । सो य मओ-सोऽपि मृगः । उद्धादो - मृतः प्राणविपन्नः । णय सो-न चासो । सामाइयं- सामायिकात् । फिडिओ - निर्गतः परिहीणः । केनचिच्छ्राव केणाटव्यां आदि को मार डाला या उन्हें अनेक यातनाएँ देने लगा फिर भी वह श्रावक अपनी दृढ़ता से च्युत नहीं हुआ अथवा उस श्रावक पर ही उपसर्ग कर दिया उस समय वह श्रावक, उपसर्ग में वस्त्र जिन पर डाल दिया गया है ऐसे वस्त्र से वेष्टित मुनि के समान है । अथवा जैसे सुदर्शन ने श्मशान में रात्रि में प्रतिमांयोग ग्रहण किया था तब अभयमती रानी ने उसे अपने महल में मँगाकर उसके साथ नाना कुचेष्टा करते हुए उसे ब्रह्मचर्य से चलित करना चाहा था किन्तु वे सुदर्शन सेठ निर्विकार ही बने रहे थे। ऐसी अवस्था में वे निर्वस्त्र मुनि के ही समान थे। किन्तु इन श्रावकों के छठा सातवाँ गुणस्थान न हो सकने के कारण ये भाव से मुनि नहीं हो सकते हैं । अतः ये भावसंयतया श्रमण नहीं कहलाते हैं किन्तु इनके प्रत्याख्यान कषाय का उदय उस समय अत्यन्त मन्दतर रहता है अतः ये यहाँ श्रमण कहे गये हैं । इससे 'श्रमण सदृश' ऐसा अर्थ ही समझना । पुनरपि सामायिक के माहात्म्य को कहते हैं— गाथार्थ- कोई श्रावक सामायिक कर रहा होता है । उस समय वन में कोई हरिण बाणों से बिद्ध हुआ आया और मर गया किन्तु उस श्रावक ने सामायिक भंग नहीं किया ।। ५३४ || Jain Education International आचारवृत्ति - वन में कोई श्रावक सामायिक कर रहा है, उस समय किसी व्याध के द्वारा बाणों से विद्ध होकर व्यथित होता हुआ कोई हिरण वहाँ उस श्रावक के पैरों के बीच में आकर गिर पड़ा और वेदना से पीड़ित हुआ, वह तड़कता हुआ बार-बार उसके पास स्थित रह कर मर भी गया फिर भी वह श्रावक अपने सामायिक संयम से पृथक् नहीं हुआ अर्थात् सामायिक का नियम भंग नहीं किया, क्योंकि वह उस समय संसार की स्थिति का विचार करता रहा । इसलिए अनेक प्रकार से सामायिक करना चाहिए, यहाँ ऐसा सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिए । भावार्थ-वन में या श्मशान में जाकर सामायिक वे ही श्रावक करेंगे, जो अतिशय धीर वीर और स्थिरचित्त वाले हैं। अतः उनका यहाँ पर करुणापूर्वक उस जीव को रक्षा की तरफ कोई विशेष लक्ष्य नहीं होता । वे तो अपने धर्मध्यान में अतिशय स्थित होकर अपनी शुद्धात्मा की भावना कर रहे होते हैं । इस उदाहरण को सामायिक करनेवाले घर 'या मन्दिर में बैठकर ध्यान का अभ्यास करते हुए श्रावक अपने में नहीं घटा सकते हैं। वे सामायिक छोड़कर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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