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________________ षडावश्यकधिकारः] [३८७ प्रावेसणी सरीरे इंदियभंडो मणो व प्रागरियो। धमिदव्व जीवलोहो वावीसपरीसहग्गीहिं ॥५०॥ आवेसनी चल्ली यत्रांगाराणि क्रियन्ते । शरीर किविशिप्टे, आवेशनीभते। इन्द्रियाण्येव भाण्डमुपस्कारभूतं सदंशकाभीरणी हस्तकूट घनादिकं । मनस्त्वाकरी चेता उपाध्यायो लोहकारः । ध्मातव्यं दाट. निर्मलीकर्तव्यं । जीबलोहं जीवधातुः । द्वाविंशतिपरीषहाग्निना । एवं द्वाविंशतिपरीषहाग्निना कर्मबन्धे ध्वस्ते चल्लीकृतं शरीरं त्यक्त्वेन्द्रियाणि चोपस्करणभूतानि परित्यज्य निर्मलीभूतं जीवसुवर्ण गृहीत्वा मनः केवलज्ञानमाकरी सिद्धत्वमुपगच्छति सिद्धो भवतीति सम्बन्धः । तस्मात् सिद्धत्वयुक्तानां सिद्धानां नमस्कारं भावेन यः करोति प्रयत्नमति: स सर्वदुःखमोक्ष प्राप्नोचिरेण कालेनेति ॥५०८।। आचार्यस्य निरुक्तिमाह-. सदा पायारबिद्दण्हू सदा आयरियं चरे । आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चादे ॥५०६॥ श्लोकोऽयं । सदा सर्वकालं आचारं वेत्तीति सदाचारवित् रात्री दिने वाचरस्य परमार्थसंवेदनं गाथार्थ-शरीर चूल्हा है, इन्द्रियाँ वर्तन हैं और मन लोहकार है । बाईस परीषहों के द्वारा जीवरूपी लोह को तपाना चाहिए ।।५०८।। प्राचारवृत्ति-आवेशनी अर्थात् चूल्हा, जिसमें अंगारे किये जाते हैं। ऐसा यह शरीर आवेशनीभूत अर्थात् चूल्हा है । इन्द्रियाँ भांड अर्थात् तपाने के साधनरूप संडासी, हथौड़ी, धन आदि हैं। मन अर्थात् यह चित्त उपाध्याय है-लोहकार या स्वर्णकार है। बाईस परीषह रूपी अग्नि के द्वारा इस जीव रूपीलोह यास्वर्ण को तपाना चाहिए, निर्मल करना चाहिए। इस प्रकार से बाईस परीषहरूपी अग्नि के द्वारा कर्मबन्ध को ध्वस्त कर देने पर चूल्हे रूप शरीर को छोड़कर और उपकरण रूप इन्द्रियों को भी छोड़ कर निर्मल हुए जीवरूप स्वर्ण को ग्रहण करके, मनः अर्थात् केवलज्ञान रूपर स्वर्णकार सिद्ध हो जाता है, ऐसा सम्बन्ध लगाना। इसलिए सिद्धत्व से युक्त इन सिद्ध परमेष्ठी को जो प्रयत्नशील जीव भावपूर्वक नमस्कार करता है वह शीघ्र ही सभी दुःखों से छूट जाता है। ___ आचार्य पद का अर्थ कहते हैं गाथार्थ-सदा आचार वेत्ता है, सदा आचार का आचरण करते हैं और आचारों का आचरण कराते हैं इसलिए आचार्य कहलाते हैं ॥५०९।। प्राचारवृत्ति-यह श्लोक है। जो हमेशा आचारों को जानते हैं वे आचारविद् हैं यह गाथा फलटन से प्रकाशित मूलाचार में अधिक है सिद्धाणणमोक्कारं भावेण य जो करेवि पयदमदी। सो सम्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ अर्थात् जो भक्त मन एकाग्र करके सिद्धों को नमस्कार करता है वह सभी दुःखों से मुक्त हो सिद्ध पद प्राप्त कर लेता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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