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________________ ३८६] [मूलाचार ज्ञानदर्शनावरणयोर्हन्तारः। अरेर्मोहस्यान्तरायस्य च हन्तारोऽपनेतारो यस्मात्तस्मादर्हन्त इत्युच्यन्ते। येनेह कारणेनेत्यम्भूतास्तेनार्हन्तः सर्वलोकनाथा लोकेस्मिन्नुच्यन्ते ॥५०५॥ अतः किं ? प्ररहंतणमोक्कारं भावेण य जो करेदि पयदमदी। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥५०६॥ इत्थंभूतानामर्हता नमस्कारं यः करोति भावेन प्रयत्नमतिः स सर्वदुःखमोक्ष प्राप्नोत्यचिरेण कालेनेति ॥५०६॥ सिद्धानां निरुक्तिमाह दोहकालमयं जंतू उसिदो अटुकम्महि । सिदे धत्ते णिवत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ ॥५०७॥ ___ श्लोकोऽयं । दीर्घकालमनादिसंसारं । अयं जन्तुजींवः । उपितः स्थितः अष्टसु कर्मसु ज्ञानावरणादिभिः कर्मभिः परिवेष्टितोयं जीवः परिणतः स्थितः । सिते कर्मबन्धे निवृत्ते'। निर्धते परप्रकृतिसंक्रमोदयोदीरणोत्कर्षापकर्षणरहिते ध्वस्ते प्रणाशमुपगते सिद्धत्वमुपगच्छति । निर्धत्ते बन्धे ध्वस्ते सत्ययं जन्तुर्यद्यपि दीर्घकालं कर्मम व्यवस्थितस्तथापि सिद्धो भवति सम्यग्ज्ञानाद्यनुष्ठानेनेति ॥५०७॥ तथोपायमाह हैं, उनके द्वारा की गई पूजा के योग्य हैं, 'रज' शब्द से-ज्ञानावरण और दर्शनावरण का हनन करनेवाले हैं, तथा 'अरि' शब्द से---मोहनीय और अन्तराय का हनन करनेवाले हैं अतः वे 'अहंन्त' इस सार्थक नाम से कहे जाते हैं। और जिस कारण से वे भगवान् इस प्रकार सर्वपूज्य हैं उसी कारण से वे इस लोक में अर्हन्त, सर्वज्ञ, सर्वलोकनाथ कहे जाते हैं। नमस्कार का क्या फल है-- गाथार्थ-जो प्रयत्नशील भाव से अर्हन्त को नमस्कार करता है, वह अति शीघ्र ही सभी दुःखों से छुटकारा पा लेता है ।।५०६।। प्राचारवृत्ति-टीका सरल है। ___ गाथार्थ---यह जीव अनादिकाल से आठ कर्मों से सहित है। कर्मों के नष्ट हो जाने पर सिद्धपने को प्राप्त हो जाता है ।।५०७।। प्राचारवृत्ति—यह इलोक है। अनादिकाल से यह जीव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से वेष्टित है, कर्मों से परिणत हो रहा है। निधत्ति रूप जो कर्म हैं अर्थात् जिनका पर-प्रकृतिरूप संक्रमण नहीं होता है, जिनका उदय, उदीरणा, उत्कर्षण और अपकर्षण नहीं हो रहा है ऐसे कर्मों के ध्वस्त हो जाने पर यह जीव सिद्धग को प्राप्त कर लेता है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि यह जीव अनादिकाल से कर्मों से सहित है फिर भी सम्यग्ज्ञान आदि अनुष्ठान के द्वारा कर्मों को ध्वस्त करके सिद्ध हो जाता है । उसी का उपाय बताते हैं१ "निवृत्त' नास्ति क प्रती। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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