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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३४७ स ईश्वरो ददाति अन्ये चामात्यपुरोहितादयो विघातं कुर्वन्ति, एवं यदि तदान्नं गृह्यते प्रथम ईश्वरो नामैकभेदोऽनीशार्थो दोष इति । तथानीश्वरोप्रधानहेतुर्यस्य दानस्य तद्दानमनीशार्थ दोपोपनीशार्थः इत्युच्यते कार्ये कारणोपचारात् । स चानीशार्थस्रिप्रकारो व्यक्तोऽव्यक्तः संघाटकः । दानादिकस्यानीश्वरः स्वामी न भवति किन्तु व्यक्तः प्रेक्षापूर्वकारी तेन दीयमानं यदि गृह्णाति तदा व्यक्तोऽनीश्वरो नामानीशार्थो दोष इति । तथा दानस्यानीश्वरस्तथा (दा) व्यक्तोऽप्रेक्षापूर्वकारी भवति तेन दीयमानं यदि गृह्णाति तदाव्यक्तानीश्वरो नामानीशार्थ इति । तथा संघाटकेन व्यक्ताव्यक्तानीश्वरेण दीयमानं यदि गलाति तदाव्यक्ताव्यक्तसंघाटानीश्वरो नामानीशार्थो दोषाऽपायदर्शनादिति । अथवैवं ग्राह्य, ईश्वरेण प्रभुणा व्यक्तेनाव्यक्तेन वा यत्सारक्षं यत्प्रतिषिद्धं तहानं यदि साधु गलाति तदा व्यक्ताव्यक्तेश्वरो नामानीशार्थो दोषः । तथानीश्वरेण प्रभुणा व्यक्तेनाव्यक्तेन वा यत्प्रतिषिद्ध सारक्ष्यं दानं तद्यदि गृह्णाति साधुस्तदा व्यक्ताव्यक्तानीश्वरो नामानीशार्थो दोषः । तथा संघाटकः समवाय एको ददात्यपरो निषेधयति दानं तत्तयाभूतं यदि गृह्णाति साधुस्तदा संघाटको नामानी. विघ्न करते हैं । यदि ऐसा दान मुनि ग्रहण करते हैं तो उनके यह अनीशार्थ ईश्वर का प्रथम भेद रूप दोष होता है। तथा जिस दान का अप्रधान पुरुष हेतु होता है वह दान अनीशार्थ है और दोष भी अनीशार्थ है। यहाँ पर कार्य में कारण का उपचार किया जाता है। यह अनीशार्थ तीन प्रकार का है—व्यक्त, अव्यक्त और संघटक । अनीश्वर दानादि का स्वामी नहीं होता है, किन्तु व्यक्त-प्रेक्षापूर्वकारी अर्थात् बुद्धि से विवेक से कार्य करने वाले को व्यक्त अनीश्वर कहते हैं। उसके द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके व्यक्त अनीश्वर नाम का अनीशार्थ दोष होता है। अनीश्वर दान का स्वामी नहीं होता है, किन्तु वही यदि अव्यक्त अर्थात् अबुद्धिपूर्वक कार्य करने वाला होने से अप्रेक्षापूर्वकारी है, उसके द्वारा दिया गया दान यदि मुनि लेते हैं तो उन्हें अव्यक्त अनीश्वर अनीशार्थ नाम का दोष होता है। तथा संघाटक अर्थात व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर द्वारा दिया गया आहार यदि मुनि लेते हैं तो उनके 'व्यक्ताव्यक्त मघाटक अनीश्वर' नाम का अनीशार्थ दोष होता है; क्योंकि इसमें अपाय देखा जाता है । अथवा इस दोष को इस तरह भी ग्रहण करना चाहिए कि ईश्वर अर्थात् स्वामी जो दान देने वाला है, व्यक्त हो या अव्यक्त, उसके द्वारा जिसका निषेध कर दिया गया है वह दान यदि साधु ग्रहण करेंगे तो उन्हें 'व्यक्त-अव्यक्त ईश्वर' नामक अनीशार्थ दोष होता है। तथा जो अनीश्वर-अप्रधान स्वामी दानपति है वह व्यक्त-बुद्धिमान हो या अव्यक्त-अबुद्धिमान, उसके द्वारा दिये गये सारक्ष्य दान को यदि मुनि ग्रहण करते हैं तो उन्हें व्यक्ताव्यक्त अनीश्वर नाम का अनीशार्थ दोष होता है । तथा कोई एक पुरुष दान देता है और अन्य निषेध करता है यदि ऐसे दान को मुनि ग्रहण कर लेते हैं तो उन्हें संघाटक नाम का अनीशार्थ दोष होता है। ईश्वर व्यक्ताव्यक्त और संघाटक के भेद से दो प्रकार का है और अनीश्वर भी व्यक्ताव्यक्त तथा संघाटक के भेद से दो प्रकार का है। यहाँ पर गाथा में 'च' शब्द समुच्चयार्थक है जिसका अर्थ यह है कि ईश्वर दो प्रकार का है और अनीश्वर भी दो प्रकार का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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