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________________ ३४४] [मूसाचारे दिकमनाचिन्नं ग्रहणायोग्यं तद्विपरीतं वा ऋजुवृत्या विपरीतेभ्यः सप्तभ्यो यद्यागतं तदप्यनाविन्नमादातुमयोग्यं । यत्र तत्र स्थितेभ्यो सप्तभ्यो गृहेभ्योप्यागतं न ग्राह्यं दोषदर्शनादिति ॥४३॥ सर्वाभिघटभेदं प्रतिपादयन्नाह सव्वाभिहडं चदुधा सयपरगामे सदेसपरदेसे। पुव्वपरपाडणयडं पढम सेसंपि णादव्वं ॥४४०॥ सर्वाभिघटं चविध जानीहि । स्वग्रामपरग्रामस्वदेशपरदेशभेदात् । स्वग्रामादागतं परग्रामादागतं स्वदेशादागतं परदेशादागतमोदनादिकं यत तच्चविधं सर्वाभिघटं। यस्मिन ग्रामे आस्यते स स्वग्राम इत्यच्यते। तस्माद्येभ्यः स परग्राम इत्युच्यते । एवं स्वदेशः परदेशोऽपि ज्ञातव्यः । ननु स्वग्रामात्कथमागच्छतीत्येतस्यामाशंकायामाह-पूर्वपाटकात् परस्मिन् पाटके नयनं परपाटकाद्वाऽ'परस्मिन् नयनरोदनादिकस्य यत्तत्स्वग्रामाभिघटं प्रथमं जानीहि । तथाशेषमपि जानीहि परग्रामात्स्वनाम आनयनं स्वदेशात् स्वग्राम आनयनं परदेशात्स्वग्रामे स्वदेशे वानयनमिति सर्वाभिवटदोषं चतुर्विधं जानीहि । प्रचुरेपिथदर्शनात् ॥३४०॥ अनाचिन्न है-ग्रहण करने के लिए अयोग्य है अर्थात् यत्र-तत्र स्थित घरों से आया हुआ भोजन ग्रहण करने योग्य नहीं है, क्योंकि उनमें दोष देखा जाता है। भावार्थ-बिना पंक्ति के घरों से लाया गया भोजन मुनि के लिए अभिघट दोषयुक्त है क्योंकि जहाँ कहीं से आने में ईपिथ शुद्धि नहीं रहती है। सर्वाभिघट दोष को कहते हैं गाथार्थ-स्वग्राम और परग्राम, स्वदेश और परदेश की अपेक्षा से सर्वाभिघट चार प्रकार का है। पूर्व और अपर मोहल्ले से वस्तु का लाना प्रथम अभिघट है ऐसे ही शेष भी जानना चाहिए ॥४४०॥ प्राचारवृत्ति-स्वग्राम, परग्राम, स्वदेश और परदेश की अपेक्षा से सर्वाभिघट के चार भेद हो जाते हैं । अर्थात् स्वग्राम से लाया गया भात आदि ऐसे ही परग्राम से लाया गया, स्वदेश से लाया गया या परदेश से लाया गया अन्न आदि अभिघट दोष से सहित है। जिस ग्राम में मुनि ठहरे हुए हैं वह स्वग्राम है, उससे भिन्न को परग्राम समझना । ऐसे ही स्वदेश और परदेश को भी समझ लेना चाहिए। स्वग्राम से कैसे आता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं पूर्वपाटक अर्थात् एक गली से या मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले में भात आदि को ले जाकर मुनि को देना या दूसरे से अन्य किसी मोहल्ले में ले जाकर देना यह स्वग्राम से आगत अभिघट दोष है। ऐसे ही परग्राम से लाकर स्वग्राम में देना, स्वदेश से स्वग्राम में लाकर देना, परदेश से लाकर स्वग्राम में देना अथवा स्वदेश में देना। इस प्रकार से सर्वाभिघट दोष को चार प्रकार का जानो। इसमें प्रचुर मात्रा में ईर्यापथ दोष देखा जाता है । अर्थात् दूर से लेकर आनेवाले १ क द्वापूर्वस्मिन् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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