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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३४३ व्रीहिभवतं गृहीत्वा मम शाल्योदनं प्रयच्छ साधुभ्योऽहं दास्यामीति मण्डकान्वा दत्वा व्रीहिभक्तादिकं गृह्णाति साधुनिमित्तं यत्तत्परिवर्तनं नाम दोष जानीहि । दातः क्लेशकारणादिति ॥४३७॥ अभिघटदोषस्वरूपं विवृण्वन्नाह देसत्ति य सव्वत्ति य दुविहं पुण अभिहडं वियाणाहि । प्राचिण्णमणाचिण्णं देसाविहडं हवे दुविहं ॥४३८।। देश इति सर्व इति द्विविधं पुनरभिघटं विजानीहि । एकदेशादागतमोदनादिकं देशाभिघटं । सर्वस्मादागतमोदनादिकं सर्वाभिघटं । देशाभिघटं पुद्विविधं । आचिन्नानाचिन्नभेदात् । आचिन्नं योग्यं । अनाचिन्नमयोग्यमिति ॥४३८॥ आचिन्नानाचिन्नस्वरूपमाह उज्जु तिहि सहि वा घरेहि जदि प्रागदं दुप्राचिणं: परदो वा तेहिं भवे तग्विवरीदं अणाचिण्णं ॥४३६॥ ऋजवत्या पंक्तिस्वरूपेण यानि त्रीणि सप्त गहाणि वा व्यवस्थितानि । तेभ्यसिभ्यः सप्तभ्यो वा गहेभ्यो यद्यागतमोदनादिकं वाचिन्नं ग्रहणयोग्यं दोषाभावात् । परतत्रिभ्यः सप्तगृहेभ्य ऊर्ध्वं यद्यागतमोदना अथवा इसी प्रकार से मण्डक-रोटी को देकर साधु के हेतु जो शालि का भात आदि लाता है, यह परिवर्त दोष है । इसमें दाता को क्लेश होता है। अभिघट दोष का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-देश और सर्व की अपेक्षा से अभिघट के दो भेद होते हैं ऐसा जानो। उसमें देशाभिघट आचिन्न और अनाचिन्न दो प्रकार का होता है ॥४३८॥ प्राचारवृत्ति-देशाभिघट और सर्वाभिघट ऐसे अभिघट के दो भेद होते हैं । एक देश से आये हुए भात आदि देशाभिघट हैं और सब तरफ़ से आये हुए भात आदि सर्वाभिघट हैं। देशाभिघट के भी दो भेद हैं—आचिन्न और अनाचिन्न । योग्य वस्तु आचिन्न है और अयोग्य को अनाचिन्न कहते हैं। आचिन्न और अनाचिन्न का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-सरल पंक्ति से तीन या सात घर से यदि आयी हुई वस्तु है तो वह आचिन्न है। उन घरों से अतिरिक्त या सरल पंक्ति से विपरीत जो आयी हुई वस्तु है वह अनाचिन्न है ।।४३६॥ प्राचारवृत्ति-सरल वृ त से-पंक्तिरूप से जो तीन घर हैं अथवा सात घर हैं, उनसे आया हुआ भात आदि आचिन्न है---ग्रहण करने योग्य है उसमें दोष नहीं है। किन्तु इन से भन्न तीन या सात घरों से अतिरिक्त घरों से आया हुआ भात आदि भोजन अनाचिन्न है-~हण के अयोग्य है। उससे विपरीत-सरल पंक्ति से अतिरिक्त, सात घरों से आया हुआ भोजन भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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