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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] क्षेपणं पत्रिकादिखण्डनं यत् यक्षादिवलिशेषश्व यस्तं बलिदोषं विजानीहि सावद्य दोषदर्शनादिति ॥४३॥ प्राभृतदोषस्वरूपं विवृण्वन्नाह पाहुडिहं पुण दुविहं बादर सुहुमं च दुविहमेक्केक्कं । प्रोकस्सणमुक्कस्सण महकालोवट्टणावड्ढी ॥४३२॥ पहुडियं-प्रावर्तितं । पुण–पुनः । दुविहं-द्विविधं । वादरं-स्थूलं। सुहुमं—सूक्ष्मं । पुनरप्येकैकं द्विविधं । ओक्कस्सणं-अपकर्षणं । उक्कस्सणं--उत्कर्षणं । अथवा कालस्य हानिर्वद्धिर्वा । अपकर्षणं कालहानिः । उत्कर्षणं कालवृद्धिरिति । स्थूलं प्राभृतं कालहानिवृद्धिभ्यां द्विप्रकारं तथा सूक्ष्मप्राभृतं तदपि द्विप्रकारं कालवृद्धिहानिभ्यामिति ॥४३२।। वादरं च द्विविधं सूक्ष्मं च द्विविधं निरूपयन्नाह दिवसे पक्खे मासे वास परत्तीय बादरं दुविहं । पुवपरमज्झबेलं परियत्तं दुविह सुहुमं च ॥४३३॥ परावृत्यशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, दिवसं परावृत्य, पक्षं परावृत्य, मासं परावृत्य, वर्ष परावृत्य यद्दानं दीयते तद्वादरं प्राभृतं द्विविधं भवति । शुक्लाष्टम्यां वा दास्यामीति स्थितं' उत्कृष्टा-(उत्कर्ष्या) ष्टम्यां पाद-प्रक्षालनकरके पुनः अष्टद्रव्य से अर्चना करना नवधाभक्ति है। वर्तमान में भी यही विधि अपनायी जाती है। प्राभूत दोष का स्वरूप बतलाते हैं गाथार्थ-प्राभूत के दो भेद हैं बादर और सूक्ष्म । एक-एक के भी दो-दो भेद हैंअपकर्षण और उत्कर्षण अथवा काल की हानि और वृद्धि करना ॥४३२॥ आचारवृत्ति प्राभृत दोष के बादर और सूक्ष्म दो भेद हैं। उनमें भी बादर प्राभूत के काल की हानि और वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार हैं और सूक्ष्म के भी काल की हानि और वृद्धि से भी दो प्रकार हो जाते हैं। __ दो प्रकार के बादर और दो प्रकार के सूक्ष्म दोषों का निरूपण करते हैं गाथार्थ-दिवस, पक्ष, महिना और वर्ष का परावर्तन करके आहार देने से बादर दोष दो प्रकार है। इसी प्रकार पूर्व, अपर तथा मध्य की वेला का परावर्तन करके देने से सूक्ष्म दोष दो प्रकार का होता है ।।४३३॥ प्राचारवत्ति-'परावर्तन करके' यह शब्द प्रत्येक के साथ सम्बन्धित करना चाहिए। अर्थात् दिवस का परावर्तन करके, पक्ष का परावर्तन करके, मास का परावर्तन करके और वर्ष का परावर्तन करके जो आहार दान दिया जाता है वह बादर प्राभृत हानि और वृद्धि की अपेक्षा दो प्रकार का हो जाता है। जैसे शुक्ल अष्टमी में देना था किन्तु उसको अपकर्षण करके-घटा करके शुक्लापंचमी के दिन जो दान दिया जाता है अथवा शुक्ला पंचमी को दूंगा १ क “तम पकाय उत्कृप्टाण्टम्यां। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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