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________________ ३२८ ] [मूलाचारे रिन्द्रियविषयाः । द्वो गंधौ सुगंधदुर्गंधी घ्राणेंद्रियविषयो । अष्टौ स्पर्शाः स्निग्धरूक्षकर्कशमृदुशीतोष्णलघुगुरुकाः स्पर्शनेन्द्रियविषयाः । सप्तस्वराः षड्गर्षभगान्धारमध्यमपंचमधैवतनिषादाः श्रोत्रेन्द्रियविषयाः । एतेषां मनसा सहाष्टाविंशतिभेदभिन्नानां संयमनमात्मविषयनिरोधनं संयमः । मनसो नोइंद्रियस्य संयमः । तथा चतुर्दशजीवसमासानां रक्षणं प्राणसंयमः । एवमिन्द्रियसंयमः प्राणसंयमश्च ज्ञातव्यो यथोक्तमनुष्ठेय इति ॥ ४१८ । । पंचाचारमुपसंहरन्नाह - दंसणणाणचरिते तव विरियाचारणिग्गहसमत्थो । श्रत्ताणं जो समणो गच्छदि सिद्धि धुद किलेसो ॥४१६॥ उष्ण, लघु और गुरु ये आठ स्पर्श हैं; ये स्पर्शन इन्द्रिय के विषय हैं। षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद ये सात स्वर हैं; ये कर्णेन्द्रिय के विषय हैं । और मन, इस तरह पाँच इन्द्रियों के ये अट्ठाईस विषय होते हैं। इनका संयमन करना अर्थात् अपने-अपने विषयों से इन्द्रियों का रोकना यह इन्द्रियसंयम है । तथा चौदह प्रकार के जीवसमासों का रक्षण करना प्राण संयम है। इस तरहइन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम को जानना चाहिए तथा आगम के अनुरूप उनका अनुष्ठान करना चाहिए । अब पंचाचार का उपसंहार करते हुए कहते हैं गाथार्थ - जो श्रमण अपनी आत्मा को दर्शन ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों से निग्रह करने में समर्थ है वह क्लेश रहित होकर सिद्धि को प्राप्त कर लेता है ।।४१६॥ — जीव मरे या न मरे, अयत्नाचारी के निश्चित ही हिंसा होती है तथा समिति से युक्त सावधान मुनि के हिंसामात्र से बन्ध नहीं होता है । अपयता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु । समणस्स सव्वकालं हिंसा सांतत्तिया ति मता ॥ - जिस साधु की सोना, बैठना, चलना, भोजन करना इत्यादि कार्यों में होने वाली प्रवृत्ति यदि प्रमाद सहित है तो उस साधु को हिंसा का पाप सतत लगेगा । अपदाचारो समणो छसु वि कायेसु बंधगोत्ति मदो । चरवि यदं यदि णिच्वं कमलं व जलं निरुवलेओ ॥ - प्रमाद युक्त मुनि षड्काय जीवों का वध करने वाला होने से नित्य बंधक है और जो मुनि यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह जल में रहकर भी जल से निर्लेप कमल की तरह कर्मलेप से रहित होता है। असिअसणिपरूसवणवहवग्धग्गहकिष्ण सप्पस रिसस्स । मा देहि ठाणवासं दुग्गविभग्गं च रोचिस्स ॥ - तलवार, बिजली, तीव्र वनाग्नि, व्याघ्र, ग्रह, काला सर्प इत्यादि के समान जो मिध्यादृष्टि जीव है वह दुर्गति मार्ग को ही प्रिय समझता है। उसे हे साधो ! स्थान और निवास नहीं देना चाहिए क्योंकि वह तलवार आदि के समान आत्मा को नष्ट करने वाला है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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