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________________ [३०७ पंचाचाराधिकारः] विनयो मोक्षस्य द्वार प्रवेशकः । विनयात्संयमः। विनयात्तपः। विनयाच्च ज्ञानं । भवतीति सम्वन्धः । विनयेन चाराध्यते आचार्यः सर्वसंघश्चापि ।।३८६।। प्रायारजीदकप्पगुणदीवणा अत्तसोधि णिज्जंजा। प्रज्जवमद्दवलाहवभत्तीपल्हादकरणं च ॥३८७॥ आचारस्य गुणा जीदप्रायश्चित्तस्य कल्पप्रायश्चित्तस्य गुणास्तद्गतानुष्ठानानि तेषांदीपनं प्रकटनं। आत्मशुद्धिश्चात्मकर्मनिमुक्तिः । निर्द्वन्द्वः कलहाद्यभावः । ऋजोर्भाव आर्जवं स्वस्थता, मृदो भावो मार्दवं मायामानयोनिरासः । लघोर्भावो लाघवं निःसंगता लोभनिरासः । भक्तिगुरुसेवा। प्रह्लादकरणं च सर्वेषां सुखोत्पादनं । यो विनयं करोति तेनाचरजीदकल्पविषया ये गुणास्ते दीपिता उद्योतिता भवंति। आर्जवमार्दवलाघवभक्तिप्रह्लादकरणानि च भवंति विनयकरिति ॥३८७॥ कित्ती मित्ती माणस्स भंजण गुरुजणे य बहुमाणं। तित्थयराणं प्राणा गुणाणुमोदो य विणयगुणा ॥३८॥ कीतिः सर्वव्यापी प्रतापः ख्यातिश्च । मैत्री सर्वैः सह मित्रभावः । मानस्य गर्वस्य भंजनमामर्दनं । गुरुजने च बहुमानं पूजाविधानं । तीर्थंकराणामाज्ञा पालिता भवति । गुणानुमोदश्च कृतो भवति । एते विनय आचारवृत्ति-विनय मोक्ष का द्वार है अर्थात् मोक्ष में प्रवेश करानेवाला है। विनय से संयम होता है, विनय से तप होता है ओर विनय से ज्ञान होता है। विनय से आचार्य और सर्वसंघ आराधित किये जाते हैं अर्थात् अपने ऊपर अनुग्रह करनेवाले हो जाते हैं। .. गाथार्थ-विनय से आचार, जीत, कल्प आदि गुणों का उद्योतन होता है तथा आत्मशुद्धि, निद्वंद्वता, आर्जव, मार्दव, लघुता, भक्ति और आह्लादगुण प्रकट होते हैं ॥३८७॥ प्राचारवृत्ति-विनय से आचार के गुण, जीदप्रायश्चित्त और कल्पप्रायश्चित्त के गुण तथा उनमें कहे हुए का अनुष्ठान, इन गुणों का दीपन अर्थात् प्रकटन होता है। विनय से आत्मशुद्धि अर्थात् आत्मा की कर्मों से निर्मुक्ति होती है, निद्व-कलह आदि का अभाव हो जाता है। आर्जव-स्वस्थता आती है, मृदु का भाव मार्दव अर्थात् माया और मान का निरसन हो जाता है, लघु का भाव लाघव-निःसंगपना होता है अर्थात् लोभ का अभाव हो जाने से भारीपन का अभाव हो जाता है। भक्ति-गुरु के प्रति भक्ति होने से गुरु सेवा भी होती है और विनय से प्रह्लादकरण-सभी में सुख का उत्पन्न करना आ जाता है । तात्पर्य यह है कि जो विनय करता है उसके उस विनय के द्वारा आचार जीद और कल्पविषयक जो गुण हैं वे उद्योतित होते हैं। आजर्व, मार्दव, लाघव, भक्ति और आह्लादकरण ये गुण विनय करनेवाले में प्रकट हो जाते हैं। गाथार्थ-कीति, मैत्री, मान का भंजन, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन ये सव विनय के गुण हैं ॥३८॥ प्राचारवृत्ति-विनय से सर्वव्यापी प्रताप और ख्याति रूप कीर्ति होती है। सभी के साथ मित्रता होती है, गर्व का मदन होता है, गुरुजनां में बहुमान अर्थात् पूजा या आदर मिलता है, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन होता है और गुणों की अनुमोदना की जाती है । ये सब विनय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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