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________________ [मूलाचार श्रावकलोके च । विनयो यथा) यथायोग्य: कर्तव्यः । अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन । साधूनां यो योग्य: आर्यिकाणां यो योग्यः, श्रावकाणां यो योग्यः, अन्येषामपि यो योग्यः स तथा कर्तव्यः, केन? साधुवर्गेणाप्रमत्तेनात्मतपोऽनुरूपेण प्रासुकद्रव्यादिभि: स्वशक्त्या चेति । किमर्थं विनयः क्रियते इत्याशंकायामाह विणएण विष्पहीणस्स हव दि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा। विणश्रो सिक्खाए फलं विणयफलं सव्वकल्लाणं ॥३८॥ विनयेन विप्रहीणस्य विनयरहितस्य भवति शिक्षा श्रुताध्ययनं निरथिका विफला सर्वा सकला विनयः पुनः शिक्षा या विद्याध्ययनस्य फलं, विनयफलं सर्वकल्याणान्यभ्युदयनिःश्रेयससुखानि । अथवा स्वर्गावतरणजन्मनिष्क्रमणकेवलज्ञानोत्पत्तिपरिनिर्वाणादीनि कल्याणादीनीति ॥३८५।। विनयस्तवमाह विणो मोक्खद्दारं विणयादो संजमो तवो णाणं। विणएणाराहिज्जदि पाइरियो सव्वसंघो य ॥३८६॥ में, अपने से छोटे मुनियों में, आर्यिकाओं में और श्रावक वर्गों में प्रमादरहित मुनि को यथायोग्य विनय करना चाहिए । अर्थात् साधुओं के जो योग्य हो, आयिकाओं के जो योग्य हो, श्रावकों के जो योग्य हो और अन्यों के भी जो योग्य हो वैसा ही करना चाहिए। किसको ? प्रमादरहित हुए साधु को अपने तप अर्थात् अपने व्रतों के, अपने पद के अनुरूप ही प्रासुक द्रव्यादि के द्वारा अपनी शक्ति से उन सबका विनय करना चाहिए। विशेष—यहाँ पर जो मुनियों द्वारा आर्यिकाओं की और गृहस्थों की विनय का उपदेश है सो नमस्कार नहीं समझना, प्रत्युत् यथायोग्य शब्द से ऐसा समझना कि मुनिगण आर्यिकाओं का भी यथायोग्य आदर करें, श्रावकों का भी यथायोग्य आदर करें, क्योंकि 'यथायोग्य' पद उनके अनुरूप अर्थात् पदस्थ के अनुकूल विनय का वाचक है। उससे आदर, सन्मान और बहुमान ही अर्थ सुघटित है। विनय किसलिए किया जाता है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-विनय से हीन हुए मनुष्य की सम्पूर्ण शिक्षा निरर्थक है। विनय शिक्षा का फल है और विनय का फल सर्व कल्याण है ।।३८५॥ प्राचारवृत्ति-विनय से रहित साधु का सम्पूर्ण श्रुत का अध्ययन निरर्थक है। विद्याअध्ययन का फल विनय है और अभ्युदय तथा निःश्रेयसरूप सर्वकल्याण को प्राप्त कर लेना विनय का फल है। अथवा स्वर्गावतरण, जन्म, निष्क्रमण, केवलज्ञानोत्पत्ति और परिनिर्वाण ये पाँचकल्याणक आदि कल्याणों की प्राप्ति का होना भी विनय का फल है । अब विनय की स्तुति करते हैं गाथार्थ-विनय मोक्ष का द्वार है । विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है । विनय के द्वारा आचार्य और सर्वसंघ आराधित होता है ॥३८६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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